भगवान श्रीकृष्ण
मेरे आराध्य भगवान श्रीकृष्ण को मैं सबसे बड़ा दीवाना मानता हूं। उनके जीवन का सब कुछ एक आदर्श है। उन्होंने बचपन जिया तो ऐसा कि आज भी मां अपने छोटे बच्चे को कान्हा कह कर बुलाती है, उन्होंने जवानी जी तो ऐसी कि आज भी प्रेम में पागल किसी लड़के को देख कर लोग कहते हैं कि बड़ा कन्हैया बना फिरता है, जिसने युद्ध रचाया तो ऐसा कि पांच नासमझ लड़कों को अनंत अक्षौहिणी सेना के सामने जिता दिया और जिसने ज्ञान दिया तो गीता जैसा जिस पर सैकड़ो नोबल पुरस्कार कुर्बान किए जा सकते हैं। ऐसा दीवाना शायद ही कोई हुआ, जो कभी सारथी बना, कभी गुरु बनाए कभी प्रेमी बना तो कभी दोस्त बना और न सिर्फ बनाए बल्कि हर भूमिका को बखूबी निभाया, जो किया पूरी दीवानगी के साथ किया।

भगत सिंह

भगत सिंह खुद ही कहते थे। कवि, प्रेमी और देशभक्त एक ही चीज से बने हैं जिसे लोग अक्सर 'दीवानापन' कहते हैं। महज 23 वर्ष की उम्र में देश के लिए अपनी आहुति देने से बड़ी दीवानगी और क्या होगी। भगत बाबा पर यह दीवानगी बचपन से ही तारी थी। सेंट्रल हॉल में बम फेंकने के बाद वहां से सिर्फ इसलिए नहीं भागे कि अगले दिन के अखबारो में सिर्फ यह न छपे कि बम फेंका गया बल्कि यह छपे कि बम फेंकने के बाद क्रन्तिकारी आजादी के नारे लगाते हुए गिरफ्तार हुए। जबकि उन्हें पता था कि पकड़े जाने का मतलब सजा-ए-मौत है। उन्होंने कहा था कि मेरा मरना जरूरी है। मैं चाहता हूं कि मेरी क़ुर्बानी पर हर मां यह दुआ करे कि मेरी कोख से भी भगत सिंह जैसा बेटा पैदा हो।
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मीराबाई
मीराबाई की दीवानगी तो पूरी दुनिया को पता है। एक ऐसे व्यक्ति से प्रेम करना जो भौतिक रूप में प्रत्यक्ष है ही नहीं, यह सोच कर ही असंभव सा प्रतीत होता है। भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में रससिक्त मीराबाई को उनके अलावा किसी चीज का भान नहीं था। कान्हा के गीत गढऩा, गाना और उनको ही पूरा जीवन समर्पित कर देना, इसमें मीराबाई ने अपनी पूर्णता माना। भक्ति और प्रेम के बीच की सेतु बनी मीराबाई को न अपनी चिंता थी, न अपने राजकुल की। भौतिक सुख के सब अवयव उन्हें सुलभ थे। लेकिन उस सुख में उनका सुख निहित था ही नहीं। मीरा को न फन चाहिए, न श्रृंगार चाहिए, न महल चाहिए, न प्रतिहारी चाहिए, बस मुरलीधर चाहिए। आज भी प्रेम सिक्त भक्ति की रचनावली मीराबाई के भाषा शिल्प के आस-पास ही रहती है।

सन्त कबीर

सन्त कबीर तो हैं ही बेलौस। वो किसी फकीर की टूटी हुई सारंगी से उठते लेकिन सधे हुए अनहद नाद हैं। वो ऐसे दीवाने हैं जो तत्कालीन संस्कारधानी वाराणसी में गंगा के तट पर खड़े हो कर रूढि़वादी परम्परा को आड़े हाथों ले सकते हैं। जो कह सकते हैं कि
हिन्दू अपनी करे बड़ाई, गागर छुअन न देई,
वेश्या के पायन तर सोवे यह देखो हिन्दुआई।
वही कबीर यह भी कहते हैं कि
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी-मुर्गा खाई,
खाला के री बेटी ब्याहै, घरहिं में करै सगाई।
तो देखिए कि कैसे कबीर बेलौस हो कर रूढि़वाद और धर्म की ओट में छुपी हिपोक्रैसी पर चोट कर सकते हैं।
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एपीजे अब्दुल कलाम
जब सारी दुनिया मिसाइल के लिए कुछ चुनिन्दा देशों की तरफ टकटकी लगाए प्रणाम की मुद्रा में खड़ी थी, तब एपीजे ने ये बीड़ा उठाया कि भारत अपना मिसाईल स्वयं बनाएगा। अग्नि की उड़ान न सिर्फ धातु से बने एक यंत्र की उड़ान थी बल्कि एक राष्ट्र की उड़ान थी, एक देश के सौ करोड़ लोगों की उड़ान थी, एक उभरते हुए ताकत की उड़ान थी। जब एपीजे ने ऐसा करने की सोची तो उन्हें अव्यवहारिक समझा गया। लेकिन वो ऐसे दीवाने थे जिन्होंने जो कहा, वो कर दिखाया। उन्होंने बताया कि स्वप्न सच हो सकते हैं, चाहे वो कितने भी बड़े हों। विज्ञान गन्धर्व एपीजे के जीवन में भी कमाल का वैविध्य था ।

ओशो रजनीश
आप किसी एक बात में आस्था रखते हो और अचानक एक व्यक्ति आपकी उस आस्था को तोड़ देता है, वह भी पूर्ण और परिपक्व तर्क के साथ। इस स्थिति में दो बातें हो सकती हैं। या तो आप उससे नाराज हो जाएंगे या फिर आप उससे प्रेम करने लगेंगे। यदि आप ऐसी धृष्टता के बाद भी उससे प्रेम करने लगते हैं तो वो व्यक्ति ओशो जैसा ही हो सकता है। ओशो एक ऐसे दीवाने हैं जिसके पास हर चीज, हर घटना और हर प्रक्रिया को देखने का अपना ही नजरिया है। अलग नजरिया होना कोई कमाल नहीं है लेकिन दूसरों को भी उसी नजरिए से दुनिया दिखला देना एक ऐसा चमत्कार है जो दीवानगी में मुŽितला ओशो ही कर सकते हैं। ओशो कमाल हैं। सब कुछ चाहिए और कुछ नहीं होने में भी कोई मलाल नहीं है।
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मिर्जा गालिब
एक बार किसी अंगरेज पुलिसवाले ने आधी रात को सड़क पर टहलते हुए मिर्जा गालिब को पकड़ लिया। उसने पूछा, 'कौन हो तुम' तो मिर्जा ने कहा,। 'गालिब'। पुलिसवाले ने पूछा, 'हिन्दू हो या मुसलमान हो?' मिर्जा बोले, 'आधा मुसलमान हूं।'। ऐसे अक्खड़ दीवाने थे मिर्जा गालिब। उनकी दीवानगी की तासीर देखिए कि उन्होंने अपनी दीवानगी से अपने लाखों पढऩे वालों को भी दीवाना बनाया है।
'न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता'
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।।।
जिन्दगी को बजाए रस्म अदायगी के, मिर्जा गालिब एक उत्सव की तरह देखते हैं, एक मेले की तरह, जहां किस्म किस्म के झूले लगे हैं, कहीं मिठाईयां पक रही हैं, कहीं खिलौने बिक रहे हैं और जिन सबके बीच से मिर्जा गालिब टहलते हुए निकल रहे हैं और वहां चल रही हर एक बात को अपने नजरिए से देख कर अपने अलफाज में उसे बयां कर रहे हैं।

अमीर ख़ुसरो
दुनिया में रह कर खुद को दुनिया से अलग कर लेना ही अमीर ख़ुसरो हो जाना है। अपनी अलग दुनिया, अलग भाषा, अलग शैली, अलग छन्द। यानि सब कुछ अलग। कहते हैं कि लेखन में छंदोदबद्ध पहेलियां और मुकरियां, गायन में कव्वाली और साजों में सितार, ये सब अमीर ख़ुसरो की ही देन है।
'खुसरो दरिया प्रेम का, सो उलटी वा की धार,
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार'।
दुनिया की रीत से उलट हो जाने में ख़ुसरो को कोई परेशानी नहीं है। ख़ुसरो वो फकीर हैं जो अपनी दीवानगी को ही जीते हैं। उनके भाषा शिल्प को ही देखिए। खड़ी बोली हिन्दी, उर्दू और फारसी के बीच पटरी बदलते समय ख़ुसरो ये नहीं सोचते कि इसे कहां बदलना है। तरतीब शायरी में है, सोच में नहीं है। सोच में तरतीब आई और दीवानगी गई! ख़ुसरो प्रबंधित नहीं हैं, इसलिए प्रतिबंधित नहीं हैं। वो सीमेंट से बनी हुई फर्श नहीं हैं। वो रेगिस्तान की मिट्टी हैं जिसका टीला अभी यहां है, अभी वहां हैं। लेकिन तमाम तरतीब बिगडऩे के बाद भी रेगिस्तान कितना ख़ूबसूरत होता है, यह बताने की ज़रुरत नहीं है।
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निराला
निराला अनगढ़ हैं। जिन्दगी में तमाम रिश्तों को खो देने के बाद निराला बचते हैं और अकेलापन बचता है। अब या तो इस अकेलेपन में घुट के आदमी नष्ट हो सकता है या फिर बिखरे तिनकों को समेट कर निराला हो सकता है। निराला इसलिए दीवाने हैं कि वो किसी एक रूप में नहीं हैं। वो इतने बिखरे हुए हैं कि कभी तो पन्त जी से झगड़ा कर के कुश्ती लडऩे लग जाते हैं, तो कभी उन्हीं पन्त जी की मृत्यु की खबर सुनकर बिलख-बिलख कर रोने लगते हैं। कभी वो इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती लड़की को देख कर रोने लगते हैं तो कभी हिंदी भाषा पर दिए गए एक व्याख्यान से चिढ़कर गांधीजी से झगड़ा करने पहुंच जाते हैं। निराला एक ही बात में सिद्ध हैं, वो हैं उनका अपने नाम के अनुरूप निराला होना। जनवरी की ठण्ड में भी कवि सम्मेलन से लौटते हुए किसी भिखारी को ठण्ड से ठिठुरते हुए देख लेते थे तो अपने शरीर का पड़ा एकमात्र कुरता भी उसे दे आते थे।

देश पर शहीद हो जाने वाले तमाम
मैं उस दीवानगी का कायल हूं जो देश के लिए मर मिटने तक की प्रेरणा देता है। चाहे वो स्वतंत्रता सेनानी हों, चाहे वो देश के सैनिक हों, चाहे अन्य रक्षा बलों के जवान, वो सब सलाम के पात्र हैं। ये तो ऐसा ऋण है जो कभी चुकाया ही नहीं जा सकता। सोच कर ही रोमांच होता है, कि कोई व्यक्ति एक ऐसे उद्देश्य के लिए अपने प्राण दे दे जिस उद्देश्य के पूर्ण होने के जश्न का हिस्सा वो स्वयं कभी नहीं हो पाएगा। भारत मां के आंचल की स्नेहिल छांव में ऐसे कई शेर हैं जो शहादत को आभूषण मानते हुए हंसते-हंसते शहीद हुए हैं। उस दीवानगी से बढ़कर और कोई दीवानगी नहीं है। देश के अंदर और बाहर के दुश्मनों से देश की रक्षा करने के लिए सर कटाने तक की सोच रखने वाले हर दीवाने को मेरा प्रणाम है।

Kumar Vishwas
डॉ कुमार विश्वास हिन्दी के एक अग्रणी कवि तथा सामाजिक।राजनैतिक कार्यकर्ता हैं।
कविता के क्षेत्र में शृंगार रस के गीत इनकी विशेषता है।
डॉ कुमार विश्वास ने अपना करियर राजस्थान में प्रवक्ता के रूप में 1994 मे शुरू किया। तत्पश्चात वो अब तक महाविद्यालयों में अध्यापन कार्य कर रहे हैं।
इसके साथ ही डॉ विश्वास हिन्दी कविता मंच के सबसे व्यस्ततम कवियों में से हैं। उन्होंने अब तक हजारों कवि सम्मेलनों में कविता पाठ किया है।

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