शोले की नींव:

जीपी सिप्पी द्वारा निर्मित, रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित और राहुलदेव बर्मन के संगीत से सजी लेखक सलीम-जावेद की कहानी के रूप में शोले का कोई जोड़ नहीं है। फिल्म सीता और गीता रिलीज के बाद रमेश सिप्पी ने कुछ यादगार फिल्म बनाने की सोची थी। इसके बाद मार्च 1973 से लिखना आरंभ हुई थी। सलीम-जावेद तथा रमेश सिप्पी अपने को सिप्पी फिल्म लेखन कक्ष में बंद कर लेते थे। इस इस दौरान चाय-सिगरेट और बीयर की ढेर सारी बोतलें खाली कर वे कहानी लिखने में बिजी रहते थे।

कलाकार का चयन:

इस फिल्म में सबसे खास बात तो यह रहीं कि इसमें कालकारों का चयन काफी तारीफ वाला रहा है। जीपी सिप्पी और रमेश सिप्पी ने काफी अच्छे से यह काम किया। शायद तभी जय के रोल के लिए शत्रुघ्न सिन्हा का नाम फाइनल था। मगर सलीम-जावेद तथा धर्मेन्द्र ने अमिताभ का नाम सुझाया था। अभिनेता धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन की जोड़ी ने लोगों के दिल को छू लिया है। इसके अलावा हेमा मालिनी और जया भादुड़ी भी अपने अपने रोल में इतनी परफेक्ट रहीं कि आज यह फिल्म पसंद की जाती है। संजीव कुमार और अमजद का इस फिल्म में किया गया अभिनय शायद ही कभी भुलाया जा सके।

तैयार नहीं थी हेमा:

वहीं इस फिल्म को लेकर सबसे खास बात तो यह थी अभिनेत्री हेमा मालिनी फिल्म शोले में बसंती तांगेवाली का रोल करने को तैयार नहीं थी। इसके पीछे फिल्म अंदाज तथा सीता और गीता की जबरदस्त सफलता थी। रमेश सिप्पी के समझाने के बाद वह मान गईं। इस फिल्म में हेमा की जमकर तारीफ हुई। बसंती से जुड़े कुछ सीन जैसे 'जय' का 'बसंती' से उसका नाम पूछना हो,'बसंती' का 'धन्नो' से अपनी इज़्ज़त बचाने की गुहार करना आज भी लोगों के जेहन में बसे है।

डॉयलाग रहे बेजोड़:

इस फिल्म के डॉयलाग का तो कोई जोड़ नहीं। आज भी सोशलमीडिया से लेकर आम लोगों की जुबान पर इस फिल्म के डॉयलाग सुनने को मिलते है। इसके चर्चित डॉयलागों के जैसे ये हाथ हमको दे दे, ठाकुर... जो डर गया, समझो मर गया...कितने आदमी थे...? हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं...तुम्हारा नाम क्या है, बसंती...चल धन्नो, आज तेरी बसंती की इज़्ज़त का सवाल है...अब तेरा क्या होगा, कालिया...इतना सन्नाटा क्यों है, भाई...अरे ओ, सांभा...आदि हैं। ये डॉयलाग मुहावरों के रूप में भी प्रयोग किए जाने लगे हैं। ये डॉयलाग तैयार करने में लेखक सलीम-जावेद ने काफी मेहनत की।

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लोकेशन का चयन:

इस फिल्म का लोकेशन भी काफी खूबसूरत रहा है। कहा जाता है कि रमेश नहीं चाहते थे कि चम्बल की घाटी या राजस्थान जाकर दर्शकों की परिचित डकैत लोकेशन पर शूटिंग की जाए। मंगलौर-बंगलौर और कोचीन जगह की जानकारी मिलने पर वह सिनेमाटोग्राफर द्वारका दिवेचा के साथ हवाई जहाज उसे देखने गए। यहां की बड़ी-बड़ी बिल्डिंग साइज की चट्टानें बीहड़  सूखे पेड़ उबड़-खाबड़ रास्ते वाले इलाके रामनगरम् को डिसाइड कर लिया था। रामनगरम् के सेट को तैयार करने में करीब 100 लोग जुटे थे।

ऐसे हुआ था इंतजाम:

सबसे खास बात तो यह है कि रामनगरम् में यूनिट के लोगों को खाने की दिक्कतें न आएं इसके लिए वहीं एक किचन तैयार हुआ। वहां पर राशन-फल-सब्जी के लिए एक बड़ा सा भंडारघर बनवाया गया। इतना ही फिल्म में शामिल घोड़ों के लिए तबेले का इंतजाम और बंगलौर हाई-वे से रामनगरम् तक एक सड़क का निर्माण भी हुआ। इसके लिए फिल्मी पूरी यूनिट ने भी काफी मेहनत की।

ये हैं असली के किरदार:

इस फिल्म के चर्चित किरदारों में गब्बर भी एक है। फिल्म में गब्बर सिंह डाकू का जो नाम दिया गया वह असली डाकू का नाम है। वह पुलिस पर हमला करता और उनके कान-नाक काट कर छोड़ दिया करता था। सूरमा भोपाली का नाम जावेद की उपज है। इसके अलावा जय और लेखक सलीम-जावेद के सहपाठी थे। इसके बाद जय और वीरू की दोस्ती इस फिल्म से इतनी मशहूर हो गई की लोग आज भी दो जिगरी दोस्तों को इसी नाम से बुलाते हैं।

शोले बन गई थी ब्रांड:

फिल्म शोले ने मुंबई में लगातार 5 सालों तक सिनेमाघर में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। इस दौरान इसने कई फिल्मों को पीछे छोड़ा। हलांकि बाद में शोले का रिकार्ड दिल वाले दुल्हनियां ने तोड़ा। शोले को लेकर बड़ा व्यवसाय भी हुआ बाजार में। ग्लुकोज बिस्किट्स से लेकर ग्राइप वॉटर तक बेचने के लिए कंपनियों ने शोले का नाम अपने साथ जोड़ा। इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई की। तीन से चार करोड़ रुपये में बनी शोले का मुंबई स्थित मिनर्वा सिनेमा में प्रीमियर हुआ था।

धमेंद्र करते थे रीटेक:

फिल्म शोले की शूटिंग में हेमा मालिनी के साथ रोमांटिक सीन करते समय धर्मेन्द्र जानबूझ कर गलतियां करते थे,ताकि उनका सीन रीटेक। इसके लिए वह यूनिट मेंबर्स को पैसे भी देते थे। इस सबके पीछे धर्मेन्द्र का मकसद होता था संजीव कुमार को हेमा से दूर रखना। धमेंद्र को पता था कि संजीव हेमा पर लट्टू हैं और हेमा के पास आने का मौका ढूंढते हैं। इस बाद को संजीव कुमार भी जानते थे।

1 सीन में 20 दिन:

इस मशहूर यादगार फिल्म में एक कमाल का सीन है जिसमें जया बच्चन लालटेन जला रही हैं और अमिताभ माउथ आर्गन बजा रहे हैं। इस सीन को पूरा करने में 20 दिन का समय लगा था। ऐसे ही इसमें और भी सीन हैं जिनको फिल्माने में काफी टाइम लगा। शोले ने भारत में 50 सप्ताह के अंदर 60 जगह गोल्डन जुबिली 100 से ज्यादा सिनेमाघरों में 25 सप्ताह में सिल्वर जुबिली मनाने वाली फिल्म है। वहीं 1999 में बीबीसी इंडिया ‘शोले’ को फिल्म ऑफ द मिलेनियम घोषित कर चुकी है।

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