पीड़िता की मौत के बाद अगले कुछ महीने सरकारी वादों और आम लोगों के नेक इरादों के नाम रहे. लेकिन 16 दिसंबर की उस घटना के एक साल बाद अब जो सवाल मुझे सबसे ज़्यादा परेशान करता है वो ये है, कि क्या दिल्ली कभी भी महिलाओँ के लिए एक सुरक्षित शहर बन सकता है?

सवाल ये कि वो क्या है जो किसी भी शहर को सुरक्षित या असुरक्षित बनाता है? क्या हमारे शहरों के बनावट में कुछ ऐसा है जिसे सुधार कर इन शहरों को महिलाओँ के लिए बेहतर और सुरक्षित बनाया जा सकता है?

इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढने के लिए मैंने दिल्ली के चार अलग-अलग इलाक़ों से जुड़ी आम लड़कियों को अपने साथ लिया और उनके साथ ये जानने कि कोशिश की इन इलाक़ों में महिलाएं ख़ुद को कितना  सुरक्षित या असुरक्षित महसूस करती हैं.

हमने शुरुआत की कनॉट प्लेस इलाक़े से जो दिल्ली का एक वीवीआईपी इलाक़ा है.  कनॉट प्लेस में आमतौर पर महिलाएँ खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं लेकिन रात को आठ या नौ बजे के बाद घर लौटने में ही वो अपनी भलाई समझती हैं.

कनॉट प्लेस

हमारी मुलाकात हुई रहिमा से और उन्होंने बताया, "कनॉट प्लेस के बीचोंबीच कई बाज़ार हैं, यहां हर जगह स्ट्रीट लाइट्स हैं और दुकानें देर शाम तक खुली रहती हैं. यहां पर जगह-जगह  पुलिसवाले भी मौजूद रहते हैं इसलिए मैं यहां काफी रात तक भी रह सकती हूं."

कई महिलाओं ने हमें बताया कि आमतौर पर शाम के बाद वो अनजान लोगों से रास्ता पूछने से कतराती हैं लेकिन कनॉट प्लेस उन्हें सुविधाजनक लगता है क्योंकि रास्ता बताने और निशानदेही के लिए यहां जगह-जगह साइन-बोर्ड मौजूद हैं.

लेकिन हम कनॉट प्लेस के अंदर की गलियों और इससे सटे दफ़्तर वाले इलाक़ों में पहुंचे तो मामला बिलकुल उलट था.

कैसे सुधरेंगे शहर?

"दिल्ली शहर की सबसे बड़ी समस्या है कि इसे अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए नक्शे यानी गाड़ियों के हिसाब से बनाई गई सड़कों, चौड़े पेवमेंट्स, सड़क से अंदर जाकर बनाए गए बंगलों के हिसाब से बसाया गया है. समस्या ये है कि सड़कें घरों से कटी हुई हैं, और मुसीबत के वक्त कोई आपकी मदद के लिए नहीं आएगा. मेरा मानना है कि शहरों के रिहाइशी इलाकों को पुराने ज़माने की तरह सामुदायिक भावना का ध्यान रखते हुए छोटी सड़कों और अंधी गलियों के साथ बनाया जाए तो निगरानी बढ़ेगी और महिलाएं सुरक्षित महसूस करेंगी. महिलाओं के हक़ में शौचालय और स्ट्रीट लाइट जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए आम नागरिकों को आवाज़ उठानी होगी. "

-स्नेहांशु मुखर्जी, सिटी प्लानर

बाराखंबा रोड के ऐसे ही एक इलाक़े में तेज़ कदमों से  मेट्रो स्टेशन की ओर बढ़ती रितुला मुश्किल से हमसे बात करने को तैयार हुईं और बोलीं, "अंधेरा होने से पहले ही मैं इस इलाक़े से निकल लेती हूं. यहां सड़कें टूटी हैं, जगह-जगह कंस्ट्रक्शन साइट्स हैं और रास्ता आमतौर पर सुनसान रहता है. यहां कोई कैसे सुरक्षित महसूस कर सकता है?"

कनॉट प्लेस के इस सफ़र से हम समझ चुके थे कि स्ट्रीट लाइटें, भीड़-भाड़ और पुलिस की मौजूदगी आमतौर पर महिलाओँ को सुरक्षित महसूस कराती है लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंचने के बाद कई और बातें सामने आईं.

दिल्ली विश्वविद्यालय

 दिल्ली विश्वविद्यालय को आज से लगभग 90 साल पहले 1922 में एक टीचिंग और आवासीय कैंपस के रुप में बसाया गया था. देशभर से छात्र-छात्राएं यहां पढ़ने आते हैं और ये एक खुला कैंपस है जहां बाहर के लोग भी आ-जा सकते हैं

विश्वविद्यालय में तीन साल बिता चुकीं सिक्ता चौधरी कहती हैं, "दिल्ली यूनिवर्सिटी दिन में तो बेहद सुरक्षित है. यहां स्टूडेंट्स की भीड़ रहती है, पुलिस वाले भी रहते हैं. लेकिन रात के बाद वही इलाक़े थोड़े डरावने हो जाते हैं. यहां एक समस्या यह है कि स्ट्रीटलाइट घने पेड़ों में छिप जाती हैं और इसकी वजह है कि मुख्य सड़कों पर भी अंधेरा रहता है. लड़के अक्सर हाथ मारने की कोशिश करते हैं. हम कोशिश करते हैं कि रात के वक़्त अकेले न जाएं और किसी न किसी के साथ ही निकलें, ये लड़कियों के लिए बड़ा झंझट भरा है."

छात्रों की एक बड़ी संख्या हॉस्टल्स के अलावा कैंपस के आसपास के रिहाइशी इलाक़ों में भी रहती है.

विजय नगर, मुखर्जी नगर, गुप्ता कॉलोनी जैसे इलाक़ों में किराए पर रहने वाले छात्र देर रात तक भी घरों को लौटते हैं. लेकिन इन इलाक़ों में कहीं लड़कों का जमावड़ा एक बड़ी समस्या है तो कहीं मेट्रो स्टेशनों के पास बने शराब के अड्डे.

वसंत कुंज

इसके बाद हमने रुख किया  वसंत कुंज का जो एक ऐसा रिहाइशी इलाक़ा है जहां एक तरफ़ हैं कई पॉश कॉलोनियां, फॉर्म हाउस और उनके बीच हैं छोटी-बड़ी कच्ची कॉलोनियां और गांव.

इस इलाक़े को अपने आलीशान फार्म हाउस के लिए जाना जाता है, लेकिन ऐसे ही एक फार्म हाउस में रहने वाली देविका ने हमारे सामने एक दूसरा पहलू रखा.

उन्होंने कहा, "जिन लोगों के पास गाड़ियों से हर जगह आने-जाने की सुविधा है वो तो यहां मज़े में हैं लेकिन बाकी लोगों के लिए ये इलाक़ा इतना सुनसान है कि रात आठ-साढ़े आठ के बाद लोग तो क्या गाड़ियां भी नहीं दिखतीं. इस गली में एक बार एक ऑटोवाले ने पास की बस्ती की एक महिला को ऑटो में अंदर खींचने की कोशिश की. यहां तो हालत ये है कि एक फ़ार्म हाउस में रहने वाले को ये पता नहीं होता कि उसके बगल में क्या हो रहा है."

इलाक़े की ज़्यादातर महिलाओं ने सड़कों से अपने घरों तक पहुंचने के सुनसान रास्तों की शिकायत की.

बवाना जेजे कॉलोनी

लेकिन रिहाइशी इलाक़ों की बनावट और बसावट के दौरान महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा हर योजना का हिस्सा हो, इस बात की ज़रूरत हमें दिल्ली की सबसे बड़ी पुनर्वास कॉलोनियों में से एक बवाना पहुंचकर महसूस हुई.

दिल्ली शहर में अलग-अलग इलाक़ों से हटाए गए लोगों के पुनर्वास के लिए साल 2004 में  बवाना के इस इलाक़े को बसाया गया. लेकिन कॉलोनी बसाते वक्त यहां निकासी की कोई व्यवस्था नहीं की गई और इस वजह से घरों में शौचालय नहीं हैं.

बवाना जेजे कॉलोनी में रहने वाली रामला देवी बोलीं, "सरकारी शौचालय में पैसे लगते हैं और वो रात को बंद रहते हैं. ऐसे में हम लोग खुले मैदानों में शौच के लिए जाते हैं. वहां आरतों के साथ कई तरह की घटनाएं घट चुकी हैं. लड़कियों को देखते हैं उनसे छेड़छाड़ करते हैं. वे अपने साथ गलत काम के लिए मना करती हैं तो लड़के उन्हें ब्लेड मारने की धमकी देते हैं. बवाना के पास की नहर से कई लड़कियों के शव मिल चुके हैं.’’

महिलाओं के प्रति मानसिकता में बदलाव तो एक लंबी सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा है लेकिन दिल्ली के इन चार अलग-अलग इलाक़ों से गुजरकर मुझे ये एहसास हुआ कि अगर हम अपने शहरों की बनावट में कुछ बुनियादी चीज़ें जोड़ दें और महिलाओँ की रोज़मर्रा ज़िंदगी से कुछ बुनियादी समस्याएं घटा दें तो दिल्ली ही नहीं कोई भी शहर उनके लिए सुरक्षित हो सकता है.

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