इधर, केजरीवाल ने फैसले का एलान किया उधर तीन बार दिल्ली की मुख्यामंत्री रहीं शीला दीक्षित ने इसपर अपनी प्रतिक्रिया दी.

शीला दीक्षित ने आप को मुबारकबाद ज़रूर दिया लेकिन साथ ही कुछ वो भी कहा जिसकी शायद इस समय ज़रुरत नहीं थी. उन्होंने कहा अब पार्टी अपने चुनावी वादे पूरे करे.

कांग्रेस और भाजपा का इंतजार

केजरीवाल और उनके साथी जानते हैं कि सरकार बनाने के बाद उन पर सबसे बड़ा दबाव अपने चुनावी वादों को पूरा करने का होगा. उनकी पार्टी के लोगों के साथ कुछ समय गुज़ारने के बाद उन्हें यह भी समझ में आ गया है कि  कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी इस ताक में रहेंगी कि कब नई सरकार चूक करे और वो उस पर हमला करें.

लेकिन शायद इससे भी बढ़ कर उन्हें यह भी मालूम है कि उन पर सबसे अधिक दबाव उनकी अपनी ज़िम्मेदारियों के बोझ का होगा. उनके समर्थकों की उमीदों का होगा और उन सभी लोगों की अपेक्षाओं का होगा जिन्होंने  पार्टी को वोट दिया है. आखिर पार्टी को समर्थन देने वाले आम लोगों ने पार्टी के चुनावी वादों को नज़र में रख कर ही तो वोट दिया है.

दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल ने सरकार बनाने के फैसले पर पहुँचने से पहले लगातार दिल्ली की जनता से सीधा संपर्क कर उनकी उम्मीदों को और भी बढ़ा दिया है. मैंने रविवार को उनकी कुछ आम सभाएं देखीं जिनमें जनता का जोश, उनका समर्थन और उनका केजरीवाल के प्रति विश्वास चुनाव के समय से कहीं अधिक नज़र आया.

भारत के राजनीतिक इतिहास में इस तरह के जनमत संग्रह का उदाहरण नहीं मिलता. शायद प्राचीन ग्रीस में जनमत संग्रह का आयोजन इस तरह होता होगा जिस परंपरा के फलस्वरूप आज के लोकतंत्र ने जन्म लिया.

भारतीय राजनीति

'आप' की सरकार पर जगाई गई उम्मीदों का दबाव

 केजरीवाल ने भी इन सभाओं में लोगों की उम्मीदों को महसूस किया होगा. लेकिन उनके चेहरे पर शिकन नहीं ख़ुशी थी और आत्मविश्वास झलक रहा था.

लोग उत्तेजित इसलिए भी थे क्योंकि इससे पहले उनके जीवन में किसी दल ने उनसे मिलकर यह नहीं पूछा था कि क्या 'हम सरकार बनाएं'. पारंपरिक राजनीतिक दल लोगों से वोट मांगने उनके पास जाते तो ज़रूर हैं. लेकिन वोट लेने के बाद उनके और आम जनता के बीच एक अनदेखी दीवार सी खड़ी हो जाती है. दोनों पक्षों के बीच फासला बढ़ जाता है.

केजरीवाल ने इस पुरानी परंपरा को तोड़ा है. वो पिछले एक साल से जिस तरह का क़दम उठा रहे हैं, वो भारतीय राजनीति में अब तक अप्रचलित था.

अरविंद केजरीवाल की पार्टी आप एक साल पहले तक भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन थी. किसी ने यह नहीं सोचा था कि चुनाव में उन्हें इतनी भारी सफलता मिलेगी.

अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी होंगी कि आप अपने वादों को पूरा करती है या नहीं. सब इस बात का इंतज़ार करेंगे कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार से दूर रह पाएगी या नहीं. कोंग्रेस और भाजपा ने चाकू और छूरियां तेज़ कर के रख लिए होंगे, जिससे की आप की सरकार की ग़लतियां करे और उनपर हमला बोला जाए.

लेकिन आम रिवायत यह है कि हम किसी भी नई सरकार को समय देते हैं. 'आप' न केवल एक नई सरकार बना रही है बल्कि पहली बार सत्ता में आ रही है. उसे सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं है.

पार्टी के अंदर कुछ लोगों को इस बात का डर है कि त्वरित संतुष्टि के इस दौर में उनकी सरकार के हर क़दम पर, हर शब्द पर लोग जजमेंटल होंगे और शायद सबसे पहले उन्हें इसी दबाव से जूझना होगा.

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