एडमिरल गोर्श्कोव की ख़रीद के लिए भारत ने रूस के साथ बातचीत अक्तूबर 2000 में शुरू की थी.

वे लम्हें गर्व से भरे होंगे जब रक्षा मंत्री एके एंटनी इस 45 हज़ार टन के विमान वाहक युद्धपोत को रूस में 'व्हॉइट सी' के बंदरगाह सेवर्डोविंक्स पर भारतीय नौसेना में औपचारिक तौर पर शामिल करेंगे. तब इस पर तिरंगा लहराया जाएगा.

आईएनएस विक्रमादित्य वहाँ से रवाना होकर भारत के पश्चिमी तट पर स्थित करवार बंदरगाह के अपने ठिकाने पर पहुँचेगा.

विक्रमादित्य का परिचय देते वक़्त जो पहली बात कही जा सकती है कि ये भारत के लिए एक 'गेम-चेंजर' है और वह भी अच्छे कारणों से.

रॉयल नेवी

13 साल के इंतज़ार के बाद भारत को मिलेगा विक्रमादित्य

लड़ाकू विमान 'मिग-29' से लैस होकर जब ये युद्धपोत अपनी पूरी रवानगी पर होगा तो इसकी सामरिक ताक़त 450 मील के दायरे तक फैली हुई होगी.

पहले से इस्तेमाल में लिए जाते रहे अपेक्षाकृत छोटे विमान वाहक युद्धपोतों के मद्देनज़र ये वो क्षमता है जो भारत के पास फ़िलहाल नहीं है. हालांकि आईएनएस विराट का अभी इस्तेमाल किया जा रहा है लेकिन आईएनएस विक्रांत अब सेवा में नहीं है.

किसी भी त्रि-आयामी क्षमता वाली नौसेना के लिए विमान वाहक युद्धपोतों का होना एक महत्वपूर्ण बात होती है.

1948 में जब पहली बार नौसैनिक विस्तार का ख़ाका खींचा गया था तो भारत ने दो विमान वाहकों की बात सोची थी. हालांकि पैसे की बाधा ने इस दिशा में आगे बढ़ने की इजाज़त नहीं दी. भारत को 1961 में पहला विमान वाहक युद्धपोत रॉयल नेवी से मिला था.

आलोचकों ने तब इस बात को लेकर सवाल उठाया था कि भारत जैसे विकासशील देश को इस तरह प्लेटफ़ॉर्म ख़रीदने की क्या ज़रूरत थी और यह कितना समझदारी भरा फ़ैसला था.

आईएनएस विराट

13 साल के इंतज़ार के बाद भारत को मिलेगा विक्रमादित्य

लेकिन दशक भर बाद ही 1971 की जंग में आईएनएस विक्रांत ने बड़े भरोसे के साथ अपनी उपयोगिता साबित कर दी. बांग्लादेश की लड़ाई के बाद किसी को विमान वाहक पोत की ज़रूरत को लेकर कोई शुबहा नहीं रह गया था.

भारत ने अपना दूसरा विमान वाहक युद्धपोत आईएनएस विराट भी रॉयल नेवी से ही 1987 में ख़रीदा और 'सी हैरियर' विमानों का भी परिचालन किया गया. हालांकि ये भी एक पुराना जहाज़ था.

इसकी नींव द्वितीय विश्व युद्ध के ज़माने में रखी गई थी और ये अब तक नौसेना की सक्रिय सेवा में है. इस बात का श्रेय चीज़ों के रखरखाव को लेकर नौसेना की क़ाबिलियत को जाता है. हालांकि आईएनएस विराट अब सम्मानपूर्वक विदाई के लिए तैयार है.

इसलिए 2014 के उत्तरार्द्ध में जब विक्रमादित्य अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करने लायक़ हो जाएगा तब भी भारत के पास एक ही विमान वाहक युद्धपोत होगा और उसे अपने दूसरे पोत आईएनएस विक्रांत के लिए कुछ और साल इंतज़ार करने होंगे.

आईएनएस विक्रांत की डिज़ाइन देश में ही बनाई गई है और इसे तैयार भी यहीं किया गया है.

'उपहार' की पेशकश

आईएनएस विक्रमादित्य

13 साल के इंतज़ार के बाद भारत को मिलेगा विक्रमादित्य

विमान वाहक पोत विक्रमादित्य भारत की सैन्य क्षमताओं का विस्तार उसकी सीमाओं के पार तक कर देगा.

यह 24 घंटे में 600 मील तक का सफर करने की क्षमता रखता है और इसके प्लेटफॉर्म पर से उड़ान भरने वाले लड़ाकू विमान 450 मील के दायरे में दुश्मनों का सफ़ाया कर सकता है.

आईएनएस विक्रमादित्य की मौजूदगी से मिलने वाली रणनीतिक बढ़त सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है.

लड़ाकू विमानों के अलावा इस विमान वाहक युद्धपोत पर हेलिकॉप्टर भी होंगे जो पनडुब्बियों को भी निशाना बना सकने में सक्षम होंगे. यह आईएनएस विक्रमादित्य की ताक़त को और बढ़ाता है.

निगरानी के मामले में संचार युद्ध अब केंद्र में है और विक्रमादित्य में इलेक्ट्रॉनिक हमले से निपटने के लिए कई ज़रूरी उपकरण लगाए गए हैं.

विक्रमादित्य का जिक्र अक्तूबर 2000 में पहली बार तब हुआ था जब रूस ने इसे भारत को बतौर 'उपहार' देने की पेशकश की थी.

शर्त ये थी कि भारत के इसके मरम्मती का ख़र्च उठाएगा.

परमाणु पनडुब्बी

13 साल के इंतज़ार के बाद भारत को मिलेगा विक्रमादित्य

शुरुआती अनुमानों में इसकी लागत 970 मिलियन अमरीकी डॉलर बताई गई थी जो कि आख़िर में 2.3 बिलियन डॉलर तक पहुँच गई.

बढ़ी हुई क़ीमत और लंबे इंतज़ार के बावजूद आईएनएस विक्रमादित्य भारत की सामरिक क्षमता का विस्तार उसकी सीमाओं के पार भी करता है.

आने वाले सालों में यह हिंद महासागर में भारत के तिरंगे की ताक़त को और बढ़ाएगा.

भारत के आयुध भंडार में रूस सबसे महत्वपूर्ण आपूर्ति करने वाले देशों में बना हुआ है और इस बात का ज़िक्र किया जा सकता है कि भारत की परमाणु पनडुब्बी अरिहंत भी रूस के सहयोग से बनी है.

और 13 सालों के इंतज़ार का भारत के लिए सबक़ है कि वह घरेलू उत्पादन में और अधिक सार्थक तरीक़े से निवेश करे.

International News inextlive from World News Desk