प्रश्न: मैं निश्चित ही बुद्धत्व को उपलब्ध होना चाहता हूं लेकिन यदि मैं उपलब्ध हो भी जाता हूं तो इससे बाकी संसार पर क्या अंतर पड़ेगा?

लेकिन तुम बाकी संसार की चिंता क्यों कर रहे हो? संसार को अपनी चिंता स्वयं करने दो और तुम्हें इसकी चिंता नहीं है कि यदि तुम अज्ञानी रह गए तो बाकी संसार का क्या होगा... यदि तुम अज्ञानी हो तो बाकी संसार का क्या होता है? तुम दुख पैदा करते हो। ऐसा नहीं कि तुम जान-बूझ कर करते हो, पर तुम ही दुख हो; तुम जो भी करो, सब ओर दुख के ही बीज बोते हो। तुम्हारी आकांक्षा व्यर्थ है; तुम्हारा होना महत्वपूर्ण है। तुम सोचते हो कि तुम दूसरों की सहायता कर रहे हो, पर तुम बाधा ही डालते हो। तुम सोचते हो कि तुम दूसरों से प्रेम करते हो पर शायद तुम उनकी हत्या ही कर रहे हो। क्योंकि तुम चाहते हो, तुम जो सोचते हो, तुम आकांक्षा करते हो, वह महत्वपूर्ण नहीं है। तुम क्या हो, यह महत्वपूर्ण है।

यदि तुम अज्ञानी हो तो तुम संसार को नर्क बनाने में मदद दे रहे हो। यह पहले ही नर्क है- यह तुम्हारी ही निर्मिति है। यदि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हो तो तुम कुछ भी करो-या तुम्हें कुछ करने की भी जरूरत नहीं है-बस तुम्हारे होने से तुम्हारी उपस्थिति से दूसरों को खिलने में सुखी होने में, आनंदित होने में सहायता मिलेगी। लेकिन उसकी चिंता तुम्हें नहीं लेनी है। पहली बात तो यह है कि बुद्धत्व को कैसे उपलब्ध होना है। तुम मुझसे पूछते हो 'मैं बुद्धत्व को उपलब्ध होना चाहता हूं’ पर यह चाह नपुंसक मालूम होती है क्योंकि इसके तुरंत बाद तुम कहते हो 'लेकिन’। जब भी लेकिन बीच में आ जाता है तो उसका अर्थ है अभीप्सा नपुंसक है।

'लेकिन संसार का क्या होगा?’ तुम हो कौन? अपने बारे में तुमने सोच क्या रखा है? क्या संसार तुम पर निर्भर है? क्या तुम इसे चला रहे हो? तुम इसकी देखभाल कर रहे हो? तुम उत्तरदायी हो? स्वयं को इतना महत्व क्यों देते हो? यह भाव अहंकार का हिस्सा है और दूसरों की यह चिंता तुम्हें कभी भी अनुभव के शिखर पर नहीं पहुंचने देगी, क्योंकि वह शिखर तभी उपलब्ध होता है, जब तुम सब चिंताएं छोड़ देते हो और तुम चिंताएं इकट्ठी करने में इतने कुशल हो कि बस अद्भुत हो। अपनी ही नहीं, दूसरों की भी चिंताएं इकट्ठी किए चले जाते हो जैसे कि तुम्हारी अपनी चिंता पर्याप्त नहीं है। तुम दूसरों के बारे में सोचते रहते हो और तुम कर क्या सकते हो? तुम बस और अधिक चिंतित और पागल हो सकते हो। हर कोई यही सोचता है कि जैसे वही केंद्र है और उसे ही पूरे संसार की चिंता करनी है और पूरे संसार को बदलना है, रूपांतरित करना है, आदर्श संसार बनाना है।

तुम बस इतना ही कर सकते हो कि स्वयं को बदल लो। तुम संसार को नहीं बदल सकते। संसार को कृपा करके उसके हाल पर ही छोड़ दो। तुम बस एक ही बात कर सकते हो, वह यह कि आंतरिक मौन, आंतरिक आनंद, तरिक प्रकाश को उपलब्ध हो जाओ। यदि तुम यह उपलब्ध कर लो तो तुमने संसार की बहुत सहायता कर दी। अज्ञान के केवल एक बिंदु को प्रकाश की लौ में बदलकर, केवल एक व्यक्ति के अंधकार को प्रकाश में बदलकर, तुमने संसार के एक हिस्से को बदल दिया और उस बदले हुए हिस्से से बात आगे बढ़ेगी। बुद्ध मरे नहीं हैं। जीसस मरे नहीं हैं। वे मर नहीं सकते, क्योंकि एक शृंख्ला चलती है- ज्योति से ज्योति जले। फिर एक उत्तराधिकारी पैदा होता है और यह क्रम आगे चलता रहता है, वे सदा जीवित रहते हैं।

लेकिन यदि तुममें प्रकाश नहीं है, तुम्हारे दीए में ज्योति ही नहीं है, तो पहले तुम अपनी अंतज्र्योति को प्राप्त करो। तभी दूसरे भागीदार हो सकते हैं। फिर यह एक शृंखला बन जाती है। फिर तुम्हारी देह खो सकती है, पर तुम्हारी ज्योति एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुंच जाएगी। अनंत तक यह कम चलता चला जाता है। मैं कहता हूं स्वार्थी बनो, क्योंकि स्व से मुक्त होने का यही एक उपाय है, संसार की सहायता करने का यही एक उपाय है। संसार की चिंता मत करो; उससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। जितनी बड़ी तुम्हारी चिंताएं होती हैं, उतने ही बड़े तुम सोचते हो कि तुम्हारे उत्तरदायित्व हैं; और जितने बड़े तुम्हारे उत्तरदायित्व होते हैं, उतना ही तुम स्वयं को महान समझते हो। महान तुम हो नहीं, बस विक्षिप्त हो। दूसरों की सहायता करने के पागलपन से बाहर निकलो। अपनी सहायता कर लो। इतना ही किया जा सकता है।

ओशो 

एकांत साधकों के लिए है, सिद्धों के लिए नहीं

मूढ़ मन निर्णय करते हैं, बुद्ध मन कृत्य करते हैं

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