पटना ब्‍यूरो। सुख-दुख तो मानव जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। दूसरों के दुख-दर्द में काम आना ही सच्ची मानवता है। इसका उदाहरण बने हैं मां वैष्णो देवी सेवा समिति के संस्थापक मुकेश हिसारिया व उनकी टीम। दरअसल, थैलेसीमिया पीडि़त बच्चों के लिए ये भगवान से कम नहीं हैं। ये हम नहीं पीडि़तों के परिजनों का कहना है। संस्था के सहयोग से पटना सहित राज्य के 44 बच्चों को बोन मेरो ट्रांसप्लांट कराने में सहयोग कर नई जिंदगी दी है। पढि़ए विश्व थैलेसीमिया दिवस पर खास रिपोर्ट

ट्रांसप्लांट के लिए कर रहे अवयेर
थैलेसीमिया पीडि़त बच्चों के लिए काम करने वाले मुकेश हिसारिया ने बताया कि थैलेसीमिया पीडि़त बच्चों की बीमारी से निजात के लिए एक ही विकल्प है बोन मेरो ट्रांसप्लांट। पीडि़त के भाई-बहन ही बोन मेरो डोनेट करते हैं, लेकिन माता-पिता ये सोचते हैं कि एक बच्चा थैलेसीमिया से पीडि़त है, दूसरा बोन मेरो डोनेट करेगा वो भी बीमार हो जाएगा। इसलिए बीमार बच्चे को ट्रांसप्लांट नहीं हो पाता है। ऐसे 44 पीडि़त परिवार के बीच जाकर टीम अवेयर की है और ट्रांसप्लांट करवाए हैं। ट्रांसप्लांट में सरकार की ओर से भी पूरा सहयोग मिला। इस तरह 44 पीडि़त बच्चे को नई जिदंगी मिली।

1100 यूनिट ब्लड की बचत
मुकेश हिसारिया ने बताया कि गर्मी की वजह से पटना सहित राज्य के सभी ब्लड बैंक ब्लड की किल्लत से जूझ रहा है। थैलेसीमिया बीमारी तभी दूर होगी जब समाज के सभी लोग इसमें सहयोग करेंगे। उन्होंने बताया कि एक बच्चे को प्रति माह दो यूनिट ब्लड की आवश्यकता होती है। ऐसे बच्चों के सहयोग के लिए अपने नजदीकी ब्लड बैंक में जाकर ब्लड डोनेट ये कहकर करें यह ब्लड थैलेसीमिया पीडि़त बच्चे को दें। उन्होंने बताया कि पुणे, बंगलुरु और भेलोर में 44 बच्चों का बोन मेरो ट्रांसप्लांट हुआ है, इससे 1100 ब्लड यूनिट की बचत हुई है। जो दूसरे पीडि़तों को काम आएगा।

छह हजार से अधिक बच्चे हैं पीडि़त
थैलेसीमिया के लिए काम कर रहे सुजीत गुप्ता ने बताया बिहार में तकरीबन छह हजार बच्चे थैलेसीमिया से पीडि़त हैं। जबकि सरकारी रिकॉर्ड में महज 900 हैं। उन्होंने बताया कि बोन मेरो ट्रांसप्लांट 12 वर्ष से कम आयु बच्चे को होता है। बिहार में ऐसे 100 बच्चे हैं जिनका बोन मेरो ट्रांसप्लांट होना है। ऐसे पीडि़त के माता-पिता के बीच जाकर अवेयर कर रहे हैं।

केस वन
सगे संबंधियों ने छोड़ा साथ
थैलेसीमिया पीडि़त अपने बेटे का बोन मेरो ट्रांसप्लांट कराने वाले सीतामढ़ी के रंजीत दास ने बताया कि जन्म के कुछ दिनों तक सब नॉर्मल था। छह माह के बाद पता चला कि वह थैलेसीमिया से पीडि़त है। हर माह दो यूनिट ब्लड की जरूर पड़ती थी। हर दसवें दिन लगता था अब ब्लड कहां से लाएंगे। मगर समाज के लोगों की सहयोग से ब्लड मिलता रहा। 31 यूनिट ब्लड चढऩे के बाद 28 अप्रैल 2021 को बोन मेरो ट्रांसप्लांट कराए। उन्होंने बताया कि ट्रांसप्लांट से पहले सगे संबधियों ने भी साथ छोड़ हर किसी को यही लगता था कि कहीं ब्लड न मांग बैठें। परिवार के सदस्यों ने भी दूरी बना ली। मगर हिम्मत नहीं हारे।

केस 2
बेटा अकेला है इसलिए नहीं हो पाया ट्रांसप्लांट
थैलेसीमिया पीडि़त बच्चों के लिए काम करने बेगूसराय के सुजीत गुप्ता ने बताया कि उनका बेटा जन्म के वक्त नॉमर्ल था। कुछ दिनों के बाद पता चला कि वह थैलेसीमिया से पीडि़त है। जिसके बाद मैं टूट गया। बच्चा अकेला है इसलिए बोन मेरो ट्रांसप्लांट भी नहीं हो पाया। उसी दिन सकंल्प लिया कि थैलेसीमिया से पीडि़त बच्चों के लिए काम करूंगा। साल 2018 से लगातार थैलेसीमिया से पीडि़त बच्चों के लिए काम कर रहा हूं।

केस 3
28 साल से कर रहा हूं संघर्ष
थैलेसीमिया से पीडि़त ब्रजेश ने बताया कि पिछले 28 साल से थैलेसीमिया से जूझ रहा हूं। शुरुआती समय में ब्लड मिलना भी आसान नहीं था। अब समाज के लोग बढ़-चढ़कर सहयोग कर रहे हैं। इसलिए ब्लड मिल जाता है। पूर्णिया में 2020 में डे-केयर सेंटर खोलने की बात कही गई। जहां थैलेसीमिया से पीडि़त मरीज को ब्लड चढ़ाया जाता है। मगर आज तक डे केयर सेंटर नहीं खुला।

सरकार से मिलती है मदद
मुकेश हिसारिया ने बताया कि थैलेसीमिया पीडि़त के बोन मैरो ट्रांसप्लांट का खर्च काफी अधिक होता है। ऐसे में जरूरतमंद ट्रांसप्लांट नहीं करवा पाते। इसलिए हम सब को मिलकर इस बीमारी से ग्रसित बच्चों की जिंदगी बचाने की मुहिम का हिस्सा बनना चाहिए। उन्होंने बताया कि जिन बच्चों के माता-पिता की वार्षिक आय 2.5 लाख रुपए से कम है। उनके बोन मैरो ट्रांसप्लांट के लिए कोल इंडिया लिमिटेड 10 लाख, केंद्र सरकार 3 लाख और राज्य सरकार 5 लाख तक आर्थिक मदद करती है।

ट्रांसप्लांट से पहले एचएलए मैचिंग अनिवार्य
एचएलए मैचिंग यानी मानव ल्यूकोसाइट एंटीजन (एचएलए) परीक्षण। बोन मेरो ट्रांसप्लांट से पहले मानव ल्यूकोसाइट एंटीजन का परीक्षण होता है। यह काफी महंगी जांच है और यह बिहार में नहीं की जाती है।

थैलेसीमिया पीडि़त बच्चे एक नजर में
- बिहार में कुल मरीज 6000
- कुल बोन मेरो ट्रांसप्लांट हुए लगभग 100
-अवेयरनेस के अभाव में रुका बोन मेरो ट्रांसप्लांट -100
-डोनर के अभाव में बोन मेरो ट्रांसप्लांट नहीं हो पाया -50
-केंद्र सरकार से मिलने वाली सहयोग राशि - 3 लाख
- राज्य सरकार से मिलने वाली सहयोग राशि - 5 लाख
- कोल इंडिया लिमिटेड से 10 लाख मरीजों को मिली मदद

शादी से पहले करें एचबीएटू टेस्ट
शहर के सीनियर जनरल फिजिशियन डॉ। राणा एसपी सिंह ने बताया कि कि थोड़ी सी सावधानी बरतकर थैलेसीमिया से बचा जा सकता है। उन्होंने बताया कि इसके लिए शादी से पहले लड़का और लड़की को अपना एचपीएलसी (हाई परफॉर्मेस लिक्विड क्रोमैटोग्राफी) टेस्ट करवाना चाहिए। एचपीएलसी टेस्ट से एचबीएटू की जांच की जाती है। यदि जांच में लड़का-लड़की के खून में एचबीएटू कम से कम 3.8 है, तो थैलेसीमिया माइनर नहीं है। लेकिन यदि एचबीएटू 3.8 से अधिक है, तो यह थैलेसीमिया माइनर का मामला हो सकता है। डॉक्टरों ने बताया कि यदि लड़का-लड़की दोनों ही जांच में थैलेसीमिया माइनर हो और उनकी शादी हो जाए तो आगे चलकर उनके बच्चे को मेजर थैलेसीमिया होने की संभावना रहती है। ऐसे में थैलेसीमिया माइनर से पीडि़त लड़का-लड़की शादी से बचें।