-मात्र 10 से 20 परसेंट लोग ही छोड़ते हैं तंबाकू, स्टेट में 54 परसेंट आबादी तंबाकू यूजर्स

- काउंसिलिंग से ज्यादा रिहैबिलिटेशन से मिलती है कामयाबी, मेडिकल थेरेपी के लिए कम आते हैं पेशेंट

PATNA: बिहार की 54 प्रतिशत आबादी टोबैको यूजर है और इसमें तेजी से युवाओं का परसेंटेज बढ़ रहा है। इसे छोड़ने यानी डिएडिक्शन को प्रभावी तरीके से कामयाबी की ऐसी बात नहीं है, जिसमें इसे छोड़ने वालों की संख्या में इजाफा हुआ हो। पटना के प्रमुख डिएडिक्शन सेंटर से मिली जानकारी के मुताबिक डिएडिक्शन में सफल होने वाले का प्रतिशत 10 से 20 परसेंट है। तंबाकू में पाया जाने वाला निकोटिन व्यक्ति की नर्वस सिस्टम में इस प्रकार असर कर जाता है कि बॉडी इसका आदि हो जाता है। इसे छोड़ने के लिए बहुत स्ट्रांग विल पॉवर और मेडिकली इफेक्टिव फॉलो-अप अनिवार्य होता है, साथ ही फैमिली का एक्टिव सपोर्ट भी एडिक्शन की राह कामयाब बनाने की एक प्रमुख इकाई है।

क्या है मेडिकल तरीका

प्राय: एडिक्ट की टेंडेंसी होती है कि वह इसे बेहद हल्के में लेता है। यही वजह है कि डॉक्टर के पास या काउंसिलिंग के लिए कम ही लोग आते हैं। टोबैको नोडल ऑफिस में मनोवैज्ञानिक डॉ नौशाद इकबाल ने बताया कि मेडिकल तरीकों को अगर नियम से फॉलो किया जाए, तो डिएडिक्शन में कामयाब हो सकते हैं। इसमें काउंसिलिंग, बिहेवियरल काउंसिलिंग और एनआरटी यानी निकोटिन रिप्लेसमेंट थेरेपी व मेडिसिन शामिल हैं। इसमें सबसे पहले काउंसिलिंग है, जो एक मोटिवेशन फैक्टर हो सकता है। दूसरे बिहेवियरल काउंसिलिंग में उसके व्यवहार पर भी नजर रहती है, लेकिन मेडिकली एनआरटी वह स्टेज है, जिसमें अल्टरनेटिव तरीकों के सहारे इसे छोड़ने पर वर्क किया जाता है।

रिहैबिलिटेशन पर भी सोचें

आमतौर पर रिहैबिलिटेशरन उन लोगों के लिए बेहद जरूरी है, जिनमें तंबाकू को छोड़ने की विल पॉवर कमजोर है। वे या तो खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं या दोस्तों के दबाव में इसके आदि बने रहते हैं। इस बारे में दिशा नशा विमुक्ति सह पुनर्वास केंद्र की डायरेक्टर राखी शर्मा का कहना है कि आमतौर पर ओपीडी के केसेज में डिएडिक्शन के सफल केसेज बेहद कम हैं। ऐसे केसेज में जिन्होंने भी रिहैबिलिटेशन का सहारा लिया वह निरंतर डॉक्टर की देखरेख में रहता है। इससे केस के मुताबिक थेरेपी की जाती है। इसमें सफलता मिलती है।

एनआरटी से घटता जाता है निकोटिन

एक सिगरेट में निकोटिन सहित चार हजार अस्वास्थकर केमिकल होता है। जब व्यसनी काउंसिलिंग के बाद एनआरटी यानि निकोटिन रिप्लेसमेंट थेरेपी के लिए आता है, तो उस व्यक्ति के बॉडी में निकोटिन की मात्रा लगातार घटती चली जाती है। इससे धीरे-धीरे वह डिएडिक्शन के लिए तैयार होने लगता है।

एम्स में खुलेगा डिएडिक्शन सेंटर

एम्स पटना में डिएक्शिन सेंटर खोलना प्रस्तावित है। एम्स के डायरेक्टर डॉ जीके सिंह ने बताया कि यहां जल्द ही साइकियाट्री डिपार्टमेंट के अंतर्गत एक डिएडिक्शन सेंटर खोला जाएगा। उन्होंने बताया कि फिलहाल एक ऐसी व्यवस्था है, जिससे कि तंबाकू को छोड़ने वाले रोगियों पर इलेक्ट्रानिक तरीके से नजर रखी जाती है। इसे रेडार कहा जाता है। जब पेशेंट को हेल्थ कार्ड जारी किया जाता है, तो लगातार इस बात की जानकारी ली जाती है कि क्या संबंधित व्यक्ति ने फिर से नशा करना शुरू कर दिया या नहीं। यह एक प्रकार से फॉलोअप को स्टेंथेंन करने की एक व्यवस्था है।

For your help

बदल डालो लाइफस्टाइल

जब तंबाकू के किसी भी उत्पाद का व्यक्ति व्यसनी बन जाता है तो उसे बदलने की बेहद जरूरत महसूस की जाती है। राखी शर्मा के मुताबिक लाइफस्टाइल चेंज करना भी एक मोटिवेशनल फैक्टर होता है। व्यक्ति फैमिली मेंबर का ख्याल करे। जो दूर हैं, उनसे वे जिम जाएं, गार्डेनिंग करें या अपनी रुचि को फॉलो करें।

मोटिवेशन बड़ी चीज है। साथ ही इमसें फॉलोअप का भी अहम रोल होता है। एम्स पटना में भी जल्द ही एक डिएडिक्शन सेंटर स्थापित किया जाएगा।

-डॉ जीके सिंह डायरेक्टर, एम्स पटना

डिएडिक्शन को कामयाब बनाने में फैमिली का सपोर्ट महत्वपूर्ण है। अगर फैमिली में किसी को तंबाकू की लत लग गई हो, तो उसे मोटिवेट करें छोड़ने के लिए।

-डॉ नौशाद इकबाल, मनोवैज्ञानिक, टोबैको नोडल ऑफिस

प्राय: देखा जाता है कि लोग डिएडिक्शन को हल्के में लेते हैं। क्या है कि अब तो कम लेते हैं, अच्छा कल से छोड़ दूंगा आदि- ये सब कह देने मात्र से नहीं छूटता तंबाकू।

-राखी शर्मा, डायरेक्टर दिशा नशा विमुक्ति सह पुनर्वास केंद्र