आज के दौर में फिल्मों से साहित्य कटता जा रहा है क्यूं?

- हमारे ही देश में इश्क को खुदा कहा गया है और आज हम उस दौर में खड़े हैं, जब इश्क को कुत्ता कहा जाने लगा है। आज बच्चे गा रहे हैं चार बोतल बोदका, उन्हें बोदका मतलब पता नहीं होगा। तुलसी दास ने कहा है भय बिन होई न प्रीत गोसाई यह यहां भी लागू होता है। जिसे जो मन में आता है जनता के बीच परोस देता है। जनता पर जिम्मेवारी क्यूं थोप दें।

मंचीय कविता में तब्दीलियां कहां तक जायज है?

-एकदम जायज है। साहित्य तो वही करेगी न जो आसपास हो रही है। भाषा तो सामायिक होती चली जाती है, समय के साथ खुद को बदलती है। तथाकथित साहित्यकार मंच को साहित्य नहीं मानते हैं। चार साहित्यकार कमरे में बैठकर एक-दूसरे की पीठ थपथपा लें, उसे साहित्य कहा जाएगा क्या।

3 गजल के दायरे को और आगे कैसे बढाया जाए?

-दिक्षित दनकौरी का एक शेर है, शेर अच्छा या बुरा नहीं होता। या तो होता है या नहीं होता है। गजल तो मेरी निगाह में सबसे प्रभावशाली विधा है। दो पंक्तियों में पूरी जिंदगी की बात कहने की क्षमता होती है उसमें। यह हमारे या किसी और की वजह से आगे नहीं बढेगी, खुद ब खुद आगे बढ़ जाएगी।

छंदमुक्त कविता के बारे में क्या ख्याल है आपका?

-मेरी राय इस मामले में बचकानी हो सकती है। कविता की मूल शर्त ही होती है छंदबद्ध और लयबद्ध होना। छंदमुक्त कविता को मैं कविता नहीं मानता। हालांकि छंदमुक्त के जरिये भी बातें कही जाती हैं।

दुष्यंत की परंपरा वाली हिंदी गजलें वर्तमान में कहां हैं?

-खूब लिखी जा रही हैं। दुष्यंत साहब की तो बात ही और है। उन्होंने तो आंदोलन कर दिया था अपनी गजलों से। आज भी नित्यानंद तुषार, मदन मोहन दानिश, दीक्षित दनकौरी, जहीर कुरैशी खूब हिंदी गजल लिख रहे हैं और पसंद भी किए जा रहे हैं।

- शलेश लोढ़ा