बिमल रॉय और बलराज साहनी की इस फिल्म ने एक मजदूर के संघर्षों और उसकी मजबूरी को बेहद ही बारिकी से पिरोया है.

एक वक्त था मज़दूरों की परिस्थितियों पर कई फिल्में बनाई जाती थी.

बी.आर. चोपड़ा की 'नया दौर' से लेकर राकेश रोशन की 'कोयला' तक मज़दूरों की परिस्थितियों को कभी संजीदा सिनेमा से तो कभी मसाला फिल्म बनाकर दिखाया गया है.

लेकिन पिछले कुछ सालों के पन्ने पलटें तो मज़दूरों पर आधारित मुख्य धारा की फिल्में लगभग ना के बराबर हो गई है.

सुपरस्टार दिलिप कुमार ने अपने करियर की कई फिल्मों में मजदूर की भूमिका निभाई है फिर वो नया दौर का टांगेवाला हो या चाय के बागानों में काम करने वाला सगीना महतो.

लेकिन क्या यही अपेक्षा आज के सितारों से की जा सकती है ?

रणबीर कपूर या सलमान खान को कभी कुली या रिक्शा चलाने वाले रोल क्यों नहीं मिलते और अगर मिलें भी तो क्या वो उसे निभा पाएंगे ?

मानसिक दिवालियापन

'दो बीघा ज़मीन' में रिक्शाचालक के रोल के लिए बलराज साहनी ने कलकत्ता जाकर वास्तव में रिक्शा चलाना सीखा. यहां तक की रिक्शा चालकों से बात करके उन्हें समझ आया कि फिल्म की कहानी, असलियत के वाकई करीब है.

बीबीसी से एक बातचीत में शो मैन कहे जाने वाले राज कपूर ने ये बात स्वीकारी थी कि काश उन्होंने दो बीघा ज़मीन जैसी फिल्म बनाई होती.

राज कपूर कहते हैं "ये फिल्म देखने के बाद मैंने सोचा कि मैं ये क्या सिर के बल खड़े होकर नाच-गाने जैसी फिल्में बनाता हूं, मैं क्यों नहीं ऐसी तस्वीर बनाता ?"

बिमल रॉय और सत्यजीत रे जैसे निर्देशकों द्वारा किसानी और मजदूरी जैसे विषयों पर जिस तरह से फिल्में बनाई गई उससे ये सवाल भी उठता है कि वर्तमान में ऐसे संवेदनशील फिल्मकार और कलाकारों की कमी तो नहीं ?

बीबीसी से बातचीत में मशहूर लेखक सलीम ने कहा "पहले के फिल्मवाले काबलियत के साथ साथ शिक्षित भी होते थे फिर वो अबरार अल्वी हो या फिर साहिर लुध्यानवी जैसी गीतकार. पहले हाथों में किताब होती थी, अब निर्दशक डीवीडी लेकर घूमते हैं. मजदूरी जैसे विषय पर समझ कहां से आएगी.?"

सलीम बताते हैं कि वो और जावेद अख़बार की एक-एक कतरन संभालकर रखते थे लेकिन अब तो मानसिक दिवालयिपन का दौर आ गया जहां मदर इंडिया जैसी संवेदनशीलता के लिए जगह नहीं है.

अब मज़दूर की समस्याएं अहम मुद्दा नहीं रही है. उस ज़माने में जिन मुद्दों पर फिल्में बना करती थी वो अब रह कहां गए ? विकास के साथ विषय भी बदल गए हैं. अब तो ये फोकस ही नहीं है

-श्याम बेनेगल, निर्देशक

मुद्दे बदल गए हैं

फिल्मकार श्याम बेनेगल का कहना है "अब मज़दूर की समस्याएं अहम मुद्दा नहीं रही है.उस ज़माने में जिन मुद्दों पर फिल्में बना करती थी वो अब रह कहां गए ? विकास के साथ विषय भी बदल गए हैं. अब तो ये फोकस ही नहीं है, उन दिनों जो गांव और शहरों के बीच की खाई थी वो अब कम होती जा रही है. अब ऐसी कहानियों में वो मर्म या भावुकता बची ही नहीं कि उसे कहा जाए."

वहीं इसके उलट समाजशास्त्री पुष्पेश पंत के मुताबिक "आप किस देहात की बात कर रहे हैं. शायद आपको ये फर्क तमिल नाड़ू में नज़र ना आए, आंध्रा में नज़र ना आए लेकिन अगर आप निचले तबके के दलित या कृषक मजदूर को देखेंगे तो आपको ये खाई ज़रुर नज़र आएगी. दुर्भाग्य से नकली ब्रांडेड जीन्स पहनने से या फोन पकड़ लेने से ये खाई भर नहीं जाती है."

बदनुमा दाग़

70 के दशक में अमिताभ बच्चन जैसे सुपरस्टार को लेकर 'कुली' बनाई गई थी जो एक बड़ी हिट फिल्म साबित हुई.

हालांकि एक मसाला फिल्म होने के कारण ये अमिताभ के किरदार पर ज़्यादा केंद्रित थी और कुलियों की स्थिति फिल्म की पृष्ठभूमि का हिस्सा भर थी.

क्या सलमान या रणबीर बनेंगे कुली?आजकल मजदूरों की स्थितियों पर आधारित कम ही फिल्में बनाई जाती है

वर्तमान की फिल्मों में मजदूरी जैसे पेशे से कहानी को आगे बढ़ाने वाले किरदार कम ही दिखाए जाते हैं.

गैंग्स ऑफ वासेपुर ऐसी ही एक फिल्म है जिसमें कोयले की खदान में काम करने वाले शाहिद खान के ज़रिए अनुराग कश्यप ने एक मजदूर के आक्रोश को दिखाया है.

पुष्पेश के मुताबिक "खेती से बेदख़ल होकर राजस्थान, बिहार से शहरों में आकर निर्माण काम में लगे मजदूरों को आप नज़रअंदाज़ करते हैं क्योंकि उसे अपने शहर पर एक बदनूमा दाग़ समझा जाता है. आप उसपर एक खूबसूरत चुस्त फिल्म बना तो सकते हैं लेकिन उसे देखेगा कौन. मैले-कुचैले मजदूर की तरफ कोई देखना ही पसंद नहीं करेगा क्योंकि डिग्निटी ऑफ लेबर यानि मजदूरी की गरिमा अब बची ही कहां है."

फिल्म समीक्षक इंदू मिरानी भी मानती हैं कि हिंदी फिल्मों को देखने वाला एक बहुत बड़ा वर्ग विदेश में रहता है जिन्हें खुश करने के लिए अगर मजदूर दिखाया जाएगा तो ये चल नहीं पाएगा. आप उसमें कुछ ग्लैमर नहीं जोड़ सकते, वो फिल्म चमकदार नहीं होगी, उसे बेहद ठेठ तरीके से दिखाना पड़ेगा जिससे तारीफ मिल जाए लेकिन पैसे नहीं कमाए जा सकते.

कुल मिलाकर मजदूरी शौक से नहीं की जाती है लेकिन फिल्म तो शौक से ही बनती है मजबूरी से नहीं.

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