कानपुर। 30 सितंबर 1970 को सोनीपत में जन्मीं दीपा मलिक का जीवन पिछले 19 सालों से व्हीलचेयर पर हैं। 30 साल की उम्र में एक बीमारी के चलते उनका ऑपरेशन किया गया जिसके बाद उनके कमर के निचल हिस्से में लकवा मार गया। इसके बाद वह कभी पैरों से चल नहीं सकी। हालांकि दीपा ने अपनी इस कमजोरी को ताकत बनाया और भारत के लिए पैरालम्पिक में मेडल जीतकर लाईं। आइए पढ़िए दीपा मलिक के संघर्ष की कहानी, उन्हीं की जुबानी...

फैमिली सपोर्ट है जरूरी

जब मेरे पैर खराब हुए तो पहली बार एहसास हुआ ऐसे लोगों के प्रति समाज में क्या नजरिया हैं। थोड़ा दुख भी हुआ। लेकिन मेरे परिवार वालों ने मुझे एक बार भी इसका एहसास नहीं होने दिया। मैं उनके लिए उतनी ही इम्पार्टेंट और सुंदर थी जितनी की व्हील चेयर पर आने के बाद। इतना ही नहीं मेरे घर वालों ने मेरे लिए अपनी रूटीन लाइफ में चेंज कर ली। मुझसे ज्यादा उन्हें पता था कि मुझे कब दवा लेनी है और कब एक्सरसाइज करनी है। रही बात मेरे पति की, तो जब-जब मुझे उनकी जरूरत पड़ी तो वह सबकुछ छोड़ कर मेरे पास आ गए। यहां तक रियो ओलम्पिक में जब मुझे लगा कि उन्हें साथ जाना चाहिए तो वह मेरे साथ थे। अगर किसी दिव्यांग की फैमिली उसका साथ देती है, तो वह दिव्यांग अपने इरादों से कुछ भी कर सकता है।

deepa malik birthday : पैरों से नहीं चल पाईं फिर भी मेडल जीतकर लाईं,पढ़िए पैरालम्पिक मेडलिस्ट दीपा की संघर्ष वाली कहानी

दूसरों से लो प्रेरणा

मेरे पिता और पति दोनों ही आर्मी बैकग्राउंड से हैं। आर्मी में आए दिन ट्रांसफर के चलते हमें कई जगह आना-जाना पड़ा, ऐसे में मुझे सफर करने में कभी दिक्कत नहीं आई। दूसरा पिता और पति दोनों की ही लाइफ में कई ऐसे आर्मी ऑफिसर्स मुलाकात हुई जो मैदान-ए-जंग में चोटिल हुए। किसी की आंख नहीं थी तो किसी के हाथ या फिर पर। लेकिन उन्हें कोई अफसोस नहीं था। उनकी तरह ही मैने खुद को ट्रीट किया। मेरे अंदर वहीं से ब्रेवरी को सोच डेवलप हुई। इसलिए हमेशा दूसरों से भी प्रेरणा लो, अगर वह कर सकता है तो आप क्यों नहीं।

अफसोस मत करो

जब मेरी लाइफ व्हील चेयर पर आई तो लोगों को यह लगा कि अब यह अपाहिज इसी पर अपना जीवन गुजारेगी। समाज में दिव्यांगों के प्रति हमारी सोच में बदलाव नहीं हो रहा है। उस समय जरूर अफसोस हुआ। लेकिन व्हील चेयर के व्हील को मैने ऐसे बदला कि लोग हैरान रह गए। किसी को उम्मीद नहीं थी कि एक दिन ऐसी जगह कार ड्राइविंग करूंगी जहां पहुंचना आसान नहीं होता। मोटर साइकिल की बात हो या फिर हिमालय कार रैली, सभी अपने दम पर पूरा किया। इसलिए दिव्यांगों को यह अफसोस नहीं करना चाहिए, बल्कि इरादों और हौसलों के साथ कुछ करके दिखाना चाहिए।

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मौत को मात देने की सोचो

हिमायलन रैली में सभी गाडिय़ां तेजी से दौड़ रही थी। वह भी ब्लैक आइस पर। जिस जगह की घटना है उसके एक तरफ खाई भी थी। इसी दौरान मेरे आगे चल रही कार अचानक रुक गई। जबकि इस रेस में ऐसा होता नहीं है। कार रुखते देख मेरी जान निकल गई। लेकिन मैने खुद पर नियंत्रण नहीं खोया और स्टेयरिंग नहीं छोड़ी। कार के अंदर हैंडब्रेक समेत जितने भी ब्रेक थे सब लगा दिए। इसके बावजूद कार ब्लैक आइस पर फिसलते हुए उस कार से जाकर टकरा ही गई। शुक्रहै कि यह टक्कर बहुत मामूली थी और मैं बच गई। मैं मौत को सामने देखकर भी डरी नहीं, क्योंकि जब आप जीतने और कुछ कर दिखाने के इरादे से निकलते हैं तो कई बार मौत भी मात खा जाती है।

काम से जवाब दो

मेरी साथी खिलाड़ी मेरे चयन पर आरोप लगाए कि झूठ, रिश्वत और पहुंच के आधार पर मेरा चयन किया गया है। मामला हाई कोर्ट तक गया जहां मुझे मुझे जाने की परमीशन दे दी गई। लेकिन जब मैंने मेडल जीता तो सभी आरोप साफ हो गए। फिर एक आर्मी परिवार होने के नाते इन आरोपों से मुझ पर दबाव था। लेकिन देश के प्रति अपने प्यार को मैने मुकाबले में साबित कर दिया। इसलिए अगर आप दिव्यांग हैं तो समाज में ऐसी बहुत से परेशानियां आएंगी जो आपकी राह रोकेंगी। जरूरी है कि मुह से नहीं बल्कि आपने काम से विरोधियों को जवाब दो।

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सफलता को मंजिल नहीं राह मानों

मैंने भले ही कई अवार्ड जीत लिए हों, लेकिन अभी अपना खेल जारी रखूुंगी। क्यालेकि सफलता पा लेना आपकी मंजिल नहीं हो सकती, ये तो सिर्फ रास्ते भर हैं। अब मैं उन बच्चियों को भी आगे लाना चाहती हूं जिनमें टैलेंट हैं लेकिन वे आगे नहीं आ पाती हैं। इसके लिए ऐसा इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने की कोशिश करुंगी जहां दिव्यांगों की प्रैक्टिस, एक्सरसाइज आसानी से हो सके।

इरादों में इमानदारी हो

सबसे बड़ी बात यह है कि आप अपने काम को इमानदारी से करो। क्योंकि जब आप आप अपने काम के लिए इमानदार होते हैं तो आपके इरादे और भी मजबूत होते जाते हैं। और जब इरादे मजबूत होते हैं तो सफलता पाना उतना कठिन नहीं रह जाता है।

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साबित करो कि बोझ नहीं हो

मैंने सात साल तक कैटरिंग का बिजनेस किया, वो एक जिद थी। वो जिद इसलिए थी, क्योंकि लोगों ने कहा कि ये तो अपंग हो गई है। हमेशा के लिए कुर्सी पर बैठ गई है। ये ना तो अब खाना बना सकती है और ना बच्चों को खिला सकती है। इसकी वजह से घर के खर्चे बढ़ गए हैं। अब हम मोटरसाइकिल पर कहीं नहीं जा पाते थे, अब हमें कार लेनी पड़ी थी। दवाई के खर्चे और दूसरे बाकी खर्चे बढ़ गए थे। तो इन सबका जवाब बनकर मेरा केटरिंग बिजनेस सामने आया। मैंने अपने लिए तो पैसे कमाए ही बल्कि कई दूसरे लोगों को रोजगार देने का जरिया भी बनी।

जिंदगी को जियो

मेरा मानना है कि जिंदगी ही वह पर्व है जिसे आप रोज मना सकते हैं। देखिए ऐसी कोई चीज नहीं है जो मैंने छोड़ी या किसी चीज का बहाना बनाया। मैंने जिंदगी के हर क्षण को खुशी से जिया है। जब मुझे डॉक्टर्स ने बताया कि अब आप कभी चल नहीं पाएंगी तो ऑपरेशन के लिए जाने से पहले मैंने रोने।धोने की बजाय नई जिंदगी जीने की तैयारी शुरू की। जल्दी से अपने पेंडिंग काम खत्म करने की कोशिश की। मसलन, बच्चों के लिए केयरटेकर का इंतजाम कर लेना। बैंक के जरूरी काम निपटाना।

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प्रोफाइल

- रियो पैरालम्पिक 2016 में शॉटपुट में सिल्वर मेडल जीता। साथ ही पैरालम्पिक में मेडल लाने वाली पहली भारतीय महिला बनी।

- आईपीसी ओशिनिया एशिया चैम्पियनशिप दुबई मार्च 2016 में जेवलिन में एक गोल्ड और शॉटपुट में एक सिल्वर।

- एक बीमारी के चलते 30 साल की उम्र में दीपा का ऑपरेशन किया गया। इसके बाद दीपा के कमर के नीचे लकवा हो गया और उनके पैरों ने काम करना बंद कर दिया। तभी वह व्हीलचेयर पर पहुंची।

- पैरालम्पिक में किसी महिला के मेडल हासिल करने का कीर्तिमान अब दीपा के नाम है।

- दीपा मलिक को इस साल खेल के सबसे बड़े सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से भी नवाजा गया।  

- अर्जुन एवार्डी दीपा मलिक के पास विभिन्न खेलों में ढेरों मेडल हैं।

- दीपा मलिक पहली दिव्यांग महिला है जिन्हें असमान्य, संशोधित वाहन रैली के लिए लाइसेंस मिला।

Interview by Sanjeev Pandey

sanjeev.pandey@inext.co.in