मुंबई (पीटीआई)। दिलीप कुमार एक स्टार से कहीं ज्यादा थे। कहने को तो वह अभिनेता थे मगर एक्टिंग से दिलों पर राज करना किसे कहते हैं, दुनिया का यह दिखाया था दिलीप कुमार ने। अपनी फिल्मों में विद्रोही से लेकर प्रेमी तक, जिंदगी का कोई पन्ना या किस्सा नहीं था जिसे दिलीप ने पर्दे पर नहीं जिया। बुधवार की सुबह 98 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कह गए दिलीप ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों से की मगर उसका अंत रंगीन फिल्मों में आकर किया। इस दौरान उन्होंने न सिर्फ बाॅलीवुड को बदलते देखा बल्कि भारत के विकास का अपनी आंखो से देखा।

हिंदी सिनेमा को दी नई दिशा
भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज किए गए मुट्ठी भर महान लोगों में से एक, दिलीप कुमार ने "देवदास", "अंदाज" और "मुगल-ए-आज़म" जैसी क्लासिक फिल्मों से ऐसी छाप छोड़ी कि आज तक उसे कोई मिटा नहीं सका। दिलीप ने भारत की आजादी से तीन साल पहले 1944 में 'ज्वार भाटा' से डेब्यू किया था और आखिरी फिल्म 1998 में की। वह नेहरूवादी नायक थे, जो 40 और 50 के दशक के अंत में सिनेमा में एक युवा भारत की समस्याओं से जूझ रहे थे, विशेष रूप से "शहीद" और "नया दौर" में उन्होंने इसकी झलक भी दिखाई। उस आदर्शवाद ने 60 के दशक में "गंगा जमुना" जैसी फिल्मों के साथ एक नया मार्ग प्रशस्त किया। बाद में वह चरित्र भूमिकाओं में चले गए। राज कपूर और देव आनंद के साथ हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध तिकड़ी का हिस्सा कुमार ने दिलों को झकझोर कर रख दिया, उनके चाहने वालों की कमी नहीं थी। राज कपूर और देव आनंद के विपरीत, उन्होंने कभी भी फिल्म निर्माण में कदम नहीं रखा, अभिनय से चिपके रहना पसंद किया, जो उनका स्थायी जुनून था।

आठ भाषाओं में थे पारंगत
दिलीप कुमार ने अपने करियर की शुरुआत बतौर बिजनेसमैन से की। वह फिल्मों में आने से पहले फल व्यापारी हुआ करते थे। कुमार बहुभाषाविद थे। पेशावर में जन्में दिलीप कुमार उर्दू, हिंदी, पंजाबी, अवधी, भोजपुरी, मराठी, बंगाली और अंग्रेजी में पारंगत थे। उनकी पत्नी, एक्ट्रेस सायरा बानो ने कहा कि वह कुरान के साथ ही भगवत गीता के साथ अच्छी तरह से वाकिफ थे और उनकी स्मृति से छंदों का पाठ कर सकते थे। उन्होंने अभिनेता की आत्मकथा "द सबस्टेंस एंड द शैडो" की प्रस्तावना में लिखा, "उनकी धर्मनिरपेक्ष मान्यताएं सीधे उनके दिल से और सभी धर्मों, जातियों, समुदायों और पंथों के प्रति उनके सम्मान से निकलती हैं।"

दंगो के दौरान लोगों की सेवा की
1990 के दशक की शुरुआत में, जब मुंबई सांप्रदायिक तनाव से त्रस्त था, कुमार शांति दूत के रूप में उभरे। शहर में 1993 के दंगों के दौरान, कहानियों की भरमार है कि कैसे उन्होंने अपना घर खोला और इसे राहत कार्य के लिए एक कमांड सेंटर बनाया। वह एक बहुत सम्मानित कलाकार थे, जिन्हें 1991 में पद्म भूषण और 2015 में पद्म विभूषण के साथ-साथ 1994 में दादासाहेब फाल्के से सम्मानित किया गया था। वह एक कार्यकाल के लिए राज्यसभा के नामांकित सदस्य भी थे।

मिला पाकिस्तान का सर्वोच्च सम्मान
1998 में, उन्हें पाकिस्तान सरकार के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार निशान-ए-इम्तियाज से सम्मानित किया गया था। अगले वर्ष, दोनों देशों के बीच कारगिल युद्ध छिड़ गया और शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने पुरस्कार वापस करने की मांग की। लेकिन कुमार ने झुकने से इनकार कर दिया और इस मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिले।

Bollywood News inextlive from Bollywood News Desk