लेकिन इन्हीं प्रकाशकों के कारण दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के परिसर में पिछले कई बरसों से चल रही रामेश्वरी फोटोकॉपी सर्विसेज के मालिक धर्मपाल सिंह छोटी सी कोठरीनुमा दुकान में लगभग हताश भाव लिए बैठे रहते हैं. इन प्रकाशन संस्थानों की शिकायत पर एक अदालत ने उनकी फोटोकॉपी की दुकान पर अगस्त के महीने में छापा डलवाया और वहाँ से किताबों की फोटोकॉपी के कई नमूने जब्त कर लिए. प्रकाशकों ने शिकायत की है कि धर्मपाल सिंह ने किताबों की फोटोकॉपी करके उन्हें साठ लाख रुपए का नुकसान करवाया है. धर्मपाल सिंह चिंतित हैं कि वो साठ लाख रुपए कहाँ से लाएँगे क्योंकि वो दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अधिकारियों के कहने पर लाइब्रेरी में रखी किताबों की फोटोकॉपी छात्रों के लिए किया करते थे. उन्होंने बीबीसी को बताया, "हम इतने डरे हुए हैं कि अब हमने किताबों की फोटोकॉपी करना बंद कर दिया है." ये पूरा मामला अखबारों में तो छाया ही रहा है, छात्रों और कई लेखकों ने प्रकाशकों के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है. यहाँ तक कि नोबेल पुरुस्कार विजेता प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने भी प्रकाशकों की आलोचना की है और निवेदिता मेनन जैसी लेखिकाओं ने प्रदर्शनों में हिस्सा लेकर अपनी नाराजगी ज़ाहिर की है.

'आर्थिक नुकसान'

दरअसल दिल्ली स्कूल आफ इकोनॉमिक्स के अधिकारियों ने रामेश्वरी फोटोकॉपी सर्विसेज को बाकायदा लाइसेंस जारी करके अपने परिसर से दुकान चलने की इजाज़त दी थी. इस समझौते के मुताबिक विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की किताबें छात्रों को फोटोकॉपी करवाने के लिए मुहैया करवाई जाएँगी और फोटोकॉपी की दुकान का मालिक प्रति पन्ना सिर्फ 40 पैसे ही वसूल करेगा. लेकिन जब से प्रकाशकों ने उन पर 60 लाख रूपए का दावा ठोका है तब से धर्म पाल सिंह परेशान हैं. उन्होंने बीबीसी से कहा, "हमारे यहाँ सबसे सस्ती दरों में फोटोकॉपी की जाती है. अगर मेरे पास 60 लाख रुपया होता तो मैं इतनी रकम से कापीराईट ही नहीं खरीद लेता?" हाईकोर्ट से आदेश मिलने के बाद किताबों की फोटोकॉपी बंद हो गई है. लेकिन छात्रों का गुस्सा सातवें आसमान पर है. वो कहते हैं कि बड़े प्रकाशक ज्ञान के बजाए मुनाफे पर ज्यादा ध्यान देते हैं. कुछ समय पहले छात्रों के एक समूह ने एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज के चक्कर लगाकर इस सिलसिले में छात्रों को एकजुट करने की कोशिश की. प्रदर्शन के आयोजकों में से एक छात्र नवीन का कहना है कि विश्वविद्यालय अधिकारियों को इस मामले में अदालत के आदेश को चुनौती देनी चाहिए, जबकि अपने हलफनामे में उन्होंने कह दिया है कि कानून तोड़ने का उनका कोई इरादा नहीं है और वो छात्रों की मदद के लिए फोटोकॉपी की दुकान को परिसर में चलाए जाने की अनुमति दे रहे थे. उधर प्रकाशकों की ओर से इस बात का पुरजोर खंडन किया जा रहा है कि उन्होंने मुनाफे के लिए यह कदम उठाया है.

व्यवसायीकरण?

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर मानस साइकिया ने बीबीसी से एक बातचीत में कहा, "अगर कोई भी एक पूरे चैप्टर की फोटोकॉपी करता है तो ये कानून का उल्लंघन है. हम सिर्फ इतना कह रहे हैं कि हमारे प्रकाशनों की किताबों के इस्तेमाल से मिलने वाली रकम का एक हिस्सा लेखक को मिले और कुछ हिस्सा प्रकाशक के पास पहुंचे वरना प्रकाशन में कौन लगातार निवेश करता रहेगा?" अब ये बहस विश्वविद्यालय परिसर से निकल कर अख़बारों और इन्टरनेट जगत में भी छा गई है. रुकुन आडवाणी जैसे प्रकाशक किताबों की फोटोकॉपी को अनैतिक मानते हैं, पर निवेदिता मेनन जैसी अकादमिक लेखिका इसे छात्रों का अधिकार मानती हैं. कई लेखकों ने प्रकाशकों के इस तर्क को ठुकरा दिया है की वो लेखकों के अधिकार के लिए फोटोकॉपी बंद करवाना चाहते हैं. इन लेखकों का कहना है कि दरअसल उन्हें अकादमिक किताबों से इतनी आमदनी होती ही नहीं है की उसकी चिंता की जाए. जहाँ विश्वविद्यालय के अधिकारी इस मुद्दे पर बात करने के लिए उपलब्ध नहीं हुए, छात्रों ने अपने आन्दोलन को और तीखा करने का ऐलान किया है. उनके विरोध प्रदर्शनों में विदेशी छात्रों ने भी हिस्सेदारी की है. ऐसे ही एक प्रदर्शन में शामिल लंदन की छात्रा ऐलिस ने बीबीसी से कहा, "मैं छात्रों की मांगों से पूरी तरह सहमत हूँ क्योंकि पूरी दुनिया में शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है और कॉपीराइट के नाम पर शिक्षा और ज्ञान को छात्रों की पहुँच से बाहर कर दिया जा रहा है."

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