भारतीय चयनकर्ताओं ने हार के तुरंत बाद नागपुर में होने वाले अंतिम टेस्ट मैच के लिए फ़ॉर्म से कोसों दूर चल रहे ज़हीर खान, हरभजन सिंह और युवराज सिंह को टीम से बाहर बैठा दिया है. लेकिन अहम सवाल यही है कि भारतीय क्रिकेट के लगातार डूबते सितारे के लिए टीम के कोच डंकन फ्लेचर की कितनी जवाबदेही है.

वैसे ये फ्लेचर साहब वही हैं जिन्होंने साल 1999 से लेकर साल 2007 तक इंग्लैंड क्रिकेट को अपनी बुलंदियों तक पहुंचाया था. लेकिन इन्हीं की कोचिंग के कार्यकाल में भारत को टेस्ट क्रिकेट में अपनी सर्वश्रेष्ट टेस्ट टीम वाली रैंकिंग से भी हाथ धोना पड़ा.

नाकाम

ये वही हैं जिनके कार्यकाल में भारतीय क्रिकेट टीम ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में जाकर टेस्ट श्रृंखला में बुरी तरह पिटी. इन्हीं के कार्यकाल में भारतीय टीम टी-20 विश्वकप के सेमीफ़ाइनल तक में जगह बनाने में नाकाम रही. ये वही हैं जिन्हें भारत के सफलतम कोचों में से एक गैरी कर्स्टन की राय लेने के बाद नियुक्त किया गया था.

लेकिन सच यही है कि साल 2011 का एकदिवसीय क्रिकेट विश्वकप जीतने के बाद जब कर्स्टन ने कोच का पद त्यागा था, उसके बाद से भारतीय क्रिकेट टीम के सितारे गर्दिश में ही दिखे हैं. लगभग 18 महीने के अपने कार्यकाल में फ्लेचर का टीम पर न ही कोई प्रभाव दिखा है और न ही कोई ठोस छाप.

ढ़ील

अगर आप भी फ्लेचर को भारतीय टीम के साथ नेट्स पर अभ्यास करते समय देखेंगे तो शायद मेरी बात पर यकीन करेंगे. टीम में वरिष्ठ खिलाड़ियों की कमी नहीं रही है और ऐसा लगता है कि वरिष्ठ खिलाड़ियों की प्राथमिकता वाली सूची में फ्लेचर थोड़ा नीचे दिखाई पड़ते हैं.

क्रिकेट के इतिहास में कहा जाता है कि हर दशक में हर बड़ी सफल टीम के पीछे एक सफल और धाकड़ कोच की भूमिका रही है. शायद भारतीय क्रिकेट टीम के लिए एक बार फिर ऐसे किसी व्यक्तित्व की तलाश का समय आ चुका है जिसके मार्गदर्शन में खोई हुई ज़मीन वापस हासिल की जा सके.

सिर्फ टीम के बड़े खिलाडियों को उनके खराब प्रदर्शन के लिए जवाबदेह बनाने के साथ-साथ टीम के कोच से भी उनका रिपोर्ट कार्ड माँगा जाए. भारतीय क्रिकेट के लिए ये किसी विडम्बना से कम नहीं कि जिस डंकन फ्लेचर ने इंग्लैंड की टीम को एक नई दिशा दी, उन्हीं के सानिध्य में टीम बड़े दिशाभ्रम की शिकार हुई लग रही है.


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