प्रश्न: लंबे अनुभव से यही दिखाई देता है कि ऋषियों तथा बुद्धपुरुषों का संदेश हमेशा गलत समझा जाता है या उपेक्षित रह जाता है। क्या इसका यह अर्थ है कि अपनी भूलों के कारण मनुष्यता अनंत काल तक दुख झेले, यही उसकी नियति है?

मैं निराशावादी नहीं हूं। मैं आशा के विपरीत आशा करता हूं। और यह प्रश्न भी कुछ उसी प्रकार का है। प्रज्ञापुरुष के, बुद्धपुरुष के रास्ते में अपरिसीम कठिनाइयां होती हैं। पहली: उसका अनुभव मन की निर्विचार स्थिति में घटता है। तो जब वह उसे लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करता है, तो मजबूरन उसे शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। सौ बुद्ध पुरुषों में से निन्यानवे चुप रहे हैं; क्योंकि जैसे ही तुम नि:शब्द अनुभव को शब्दों में ढालते हो, तो उसकी आत्मा खो जाती है। फर्क यह है कि तुम एक सुंदर पक्षी को खुले आकाश में उड़ते हुए देखते हो; वह इतना सुंदर दृश्य होता है- उसकी स्वतंत्रता वह खुला आकाश, वह अनंतता! और फिर तुम उस पक्षी को पकड़कर सोने के पिंजरे में रखते हो, जो कि बेशकीमती होता है। एक तरह से वह वही पक्षी है, लेकिन फिर भी वही नहीं है।

उसका आकाश कहां गया? उसके पंख कहां हैं? उसकी स्वतंत्रता कहां गई? सब खो गया। उसकी अनंतता खो गई। अब वह मृतवत हो गया। ठीक यही घटना बुद्धपुरुष के साथ घटती है। चेतना के उत्तुंग शिखर पर उसे कुछ अनुभव हुआ है, जहां कोई शब्द, कोई विचार प्रवेश नहीं कर सकता। हिमालय के उन स्वर्णिम शिखरों से, उस अनुभव को उन अंधेरी घाटियों में उतारना पड़ता है, जहां रोशनी की किरण भी कभी उतरी नहीं। तो जैसे ही वह बोलता है, उसी समय कोई सारभूत तत्व उसमें से खो जाता है। पहला पतन शुरू हुआ। पहली गलतफहमी का प्रारंभ हुआ। और इसकी शुरुआत स्वयं बुद्धपुरुष से होती है। इसका दोष साधारण आदमी के सिर पर रखने जरूरत नहीं है। वह शब्द जब साधारण लोगों तक पहुंचता है, जो अनेक प्रकार के संस्कारों से भरे हैं, वे उसे उस ढंग से नहीं समझ सकते, जो बुद्धपुरुष का आशय होता है। लेकिन उनकी कोई गलती नहीं है, इसके लिए उन्हें सजा देना ठीक नहीं है। वे दया के पात्र हैं। उन्होंने उस तरह का कुछ जाना ही नहीं है।

जब जाग्रत व्यक्ति के शब्द मूर्छित व्यक्ति तक पहुंचते हैं, तो उसका पूरा रंग ही बदल जाता है क्योंकि मूर्छित व्यक्ति अपनी धारणाओं के पर्दे की ओट से उसे सुनता है। और इस तरह का अनुभव उसे कभी हुआ नहीं है। इसलिए गलतफहमी पैदा होती है। लेकिन उस गलतफहमी के बावजूद, उसमें कुछ सुगंध होती है, कुछ सौंदर्य होता है, कोई गरिमा होती है, जिससे साधारणजन उसके भक्त हो जाते हैं, उसको समर्पित हो जाते हैं। लेकिन उनकी भक्ति का, उनके समर्पण का शोषण होने ही वाला है- उस बुद्धपुरुष द्वारा नहीं, बल्कि एक नए किस्म के व्यक्ति द्वारा: पुरोहित और उसकी पूरी जमात।

वे मध्यस्थ हो जाते हैं। वे विद्वान हैं, शब्दों के जानकार हैं। वे बुद्धपुरुष के वचनों की उन लोगों के लिए व्याख्या करने का दिखावा करते हैं, जो समझ नहीं सकते। और वे सबसे बड़ी बाधा बनते हैं। आज तक यह हकीकत रही है। और मैं नहीं सोचता कि इसमें कुछ बदलाहट होगी। यह हालत तब तक बनी रहेगी, जब तक कि हम बुद्धत्व को एक व्यापक अनुभव नहीं बनाते- इसमें कुछ विशिष्टता नहीं है कि केवल कुछ लोग ही गौरीशंकर पर पहुंचे, और बाकी सब लोग सिर्फ विश्वास करें कि गौरीशंकर हैं।

ध्यान को इतना सरल बनाना है कि जिसको भी मौन होने में उत्सुकता है, जिसको भी सहज, विश्रामपूर्ण, शांत होना है, जिसको भी स्वप्नविहीन निद्रा का अनुभव लेना है...मैं ईश्वर के संबंध में बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि तब फिर बड़ी विशिष्ट बात हो जाती है। मैं स्वर्ग की चर्चा नहीं कर रहा हूं, क्योंकि तब फिर वह एक विशिष्ट खोज बन जाती है। मैं पुनर्जन्म के विषय में कुछ नहीं कह रहा हूं। मैं उन बातों का फिक्र कर रहा हूं, जिनमें कोई उत्सुकता न हो ऐसा आदमी खोजना कठिन है- मौन, शांति, प्रेम, करुणा, आनंद। और मैं ध्यान को इन बातों से जोड़ने की कोशिश कर रहा हूं, मैं वैज्ञानिक ढंग से सोचता हूं।

ओशो।

समर्पण का मतलब ही है अटूट श्रद्धा यानी बेशर्त आस्था

आत्मिक उलझन को सुलझाना ही है ध्यान, तो जानें समाधि क्या है?

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