बेटों के लिए खुद को भूल गए

मां के बिना एक मध्यम वर्गीय परिवार के तीन बच्चों के सफलता का सफर आसान नहीं है। आज वो जो भी हैं अपने पिता की बदौलत हैं। पिता के सपने आज बच्चों के आंखों में बस रहे हैं। आर्मी में हवलदार रणजीत सिंह बताते हैं कि वर्ष 1992 में एक भाई आठ साल का रणधीर सिंह, दूसरा ढाई साल का सुजीत सिंह और मैं 11 साल का था जब मां दुनिया छोड़कर चली गयी। 32 साल की उम्र में पापा सूर्यवंश सिंह ने राजपुताना रेजीमेंट में हवलदार की जॉब करते हुए तीन बच्चों की परवरिश की। छोटे भाई रणधीर सिंह को खाना खिलाना, तैयार करना, स्कूल पहुंचाना और उसके रात में सोने के बाद ही सोना। वहीं तीसरा भाई बुआ के घर पर। सभी की लेह लद्दाख जैसे दुर्गम जगह पर नौकरी करते हुए पल-पल की खबर लेना पापा की दिनचर्या में शामिल था। इसमें दादा जेडी सिंह का भी बहुत बड़ा सपोर्ट रहा।

पापा ही नहीं मां भी

पापा ही हम तीनों के लिए मां भी हैं। रणजीत बताते हैं कि मां पुष्पा सिंह के साथ छोड़ने के बाद यह कमी कब पापा ने पूरा कर दिया यह पता ही नहीं चला। मां का जो भी रोल होता है वह घर से दूर होने के बाद भी पापा ने बखूबी निभाया। कभी मां की कमी का एहसास नहीं होने दिया। हम तीन भाइयों की परवरिश ऐसी कि दो भाई आर्मी में और तीसरा भाई आज एयरफोर्स में नौकरी कर पापा के नाम को रोशन कर रहे हैं। आज भी पापा थके हैं न रुके हैं।