मैं दिन भर में काफ़ी घंटे सोशल मीडिया और इंटरनेट पर काम करता हूँ. अपने फ़ोन पर हर वक़्त मैसेज और ईमेल चेक करता रहता हूँ और नए-नए ऐप्स अपने फ़ोन पर डाउनलोड करता रहता हूँ.

क्या मुझे सोशल मीडिया, ऐप्स और इंटरनेट का नशा है? यही सवाल मैंने किया नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (निमहैन्स) के मनोविज्ञान विभाग के डॉक्टर मनोज शर्मा से. मैंने कहा, "मैं ख़ुद को एक मरीज़ की तरह आपके सामने पेश कर रहा हूँ."

डॉ. मनोज शर्मा ने मुझ से कई सवाल किए, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण टेस्ट था यह देखना कि मेरे अन्दर अंग्रेजी के चार सी (C) की कैफ़ियत मौजूद हैं या नहीं.

वह कहते हैं, “हम इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस्तेमाल करने वालों में चार 'सी' ढूँढते हैं. पहला है क्रेविंग यानी सोशल मीडिया पर जाने और इंटरनेट के इस्तेमाल की ज़बरदस्त तलब. दूसरा है कंट्रोल यानी जब आप सोशल मीडिया पर होते हैं तो अपना संतुलन खो देते हैं, आपको समय का पता नहीं चलता.”

“तीसरा है कम्पल्शन यानी अगर आप को इंटरनेट पर जाने की या अपने मोबाइल फ़ोन पर मेल चेक करने की या फेसबुक पर अपडेट लिखते रहने और तस्वीरें अपलोड करने की ज़रूरत नहीं है तब भी आप इसका इस्तेमाल करते हैं और चौथा है कॉन्सिक्वेंसेज़ मतलब इस आदत के कारण हुआ नुक़सान. दोस्तों और रिश्तेदारों को खोने से लेकर ख़ुद का क़ीमती समय बर्बाद करना, इसमें सभी तरह का नुक़सान हो सकता है.”

"गंभीरता से लेना ज़रूरी"

"नई पीढ़ी टेक्नॉलॉजी के बेजा इस्तेमाल की शिकार है जिसके कारण उनकी याददाश्त कमज़ोर हो गई है. वह किसी भी समस्या का समाधान तुरंत चाहते हैं क्योंकि उन्हें इंटरनेट पर हर प्रश्न का उत्तर फ़ौरन मिल जाता है."

डॉक्टर - प्रोफ़ेसर विवेक बेनेगल, निमहैन्स अस्पताल, बंगलौर

मैं इस टेस्ट में आधा पास और आधा फ़ेल हुआ. डॉ. शर्मा का कहना था कि साइबर दुनिया से बाहर असल ज़िन्दगी में भी मेरे काफ़ी दोस्त हैं और मेरी भूख, प्यास और सेहत अब भी बरक़रार है इसलिए मैं नशा करने वालों की श्रेणी में नहीं आता हूँ. दूसरी तरफ़, उन्होंने कहा कि मैं इंटरनेट और ईमेल इत्यादि ज़रूरत से ज़्यादा करता हूँ, इसलिए यह नशे जैसा बन सकता है.

डॉ. शर्मा का विभाग इंटरनेट के नशे के शिकार लोगों के लिए हफ्ते में दो बार एक क्लीनिक चलाता है जहाँ युवा मरीज़ों की संख्या अधिक है.

उनसे मिलने आने वालों में 16 साल की मीनल (असली नाम नहीं) भी हैं. उनके माता-पिता को लगता है कि मीनल कंप्यूटर की दुनिया से बाहर आना ही नहीं चाहती इसलिए वो उन्हें इस क्लीनिक में लाए हैं.

यहाँ आने तक मीनल अपने सारे दोस्त खो चुकी थीं. वो लगभग 7-8 घंटे प्रतिदिन कंप्यूटर पर बैठ कर सोशल मीडिया में चैट करती रहती थी, जिसमें अनजान लोगों के साथ चैट करना शामिल था. उसने खाना-पीना बहुत कम कर दिया था. उसकी भूख और प्यास मिट चुकी थी.

डॉ. शर्मा और उनके विभाग के दूसरे डॉक्टर मीनल का इलाज कर रहे हैं और मीनल के व्यवहार में अब थोड़ा बदलाव आया है. लेकिन मीनल की तरह कम उम्र के लड़के और लड़कियां इंटरनेट के नशे का शिकार हो चुके हैं.

दिमाग़ का इस्तेमाल

सोशल मीडिया की लत पहचानने के चार तरीक़े

इसी अस्पताल के प्रोफ़ेसर विवेक बेनेगल बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञ हैं. उनका कहना है कि नई पीढ़ी टेक्नॉलॉजी के अनुचित इस्तेमाल की शिकार है जिसके कारण उनकी याददाश्त कमज़ोर हो गई है. वह किसी भी समस्या का समाधान तुरंत चाहते हैं क्योंकि उन्हें इंटरनेट पर हर प्रश्न का उत्तर फ़ौरन मिल जाता है.

वह कहते हैं, “सबसे गंभीर बात यह है कि इन बच्चों को अब अपना दिमाग़ इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं होती क्योंकि वह हर चीज़ इंटरनेट पर ढूंढ लेते हैं.”

विवेक बेनेगल का आगे कहना है कि इंटरनेट रचनात्मकता को मार देता है, “आज के बच्चों को हर समस्या का हल इंटरनेट पर मिल जाता है इसलिए वह अपने सोचने और समझने की क्षमता खो देते हैं. दिमाग़ का प्रयोग कम हो जाता है.”

उन्होंने एक लड़के का उदाहरण दिया जो कंप्यूटर और फोन पर विडियो गेम खेलने का आदी हो चुका था. वो कहते हैं, “वह 10-12 घंटे गेम खेलता रहता था. उसने कॉलेज जाना छोड़ दिया. उसकी भूख मर गई थी. वह मेरा मरीज़ है लेकिन मुझे उसे सामान्य होने में समय लगेगा.”

डॉक्टर शर्मा कहते हैं कि इंटरनेट और सोशल मीडिया की लत उसे लगती है जो अवसाद का शिकार है और जिसे अकेलापन खलता है. या फिर वह जो पढ़ने जैसे गंभीर काम से दूर भागना चाहता है.

विवेक बेनेगल का कहना है कि परेशानी वाली बात यह है कि समाज और सरकार अब तक इसे गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. उन्हें अब तक अंदाजा भी नहीं है कि यह एक समस्या है. वह कहते हैं, “ज़रूरत इस बात की है कि इस पर देश भर में चर्चा हो और लोगों के बीच जागरूकता पैदा हो.”

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