ये है भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नायक सुखदेव का संक्षिप्त बायोडाटा ख़ासकर उन लोगों के लिए जिनकी यादों से शायद सुखदेव का साया मिट चुका है। ये वह सुखदेव हैं जिन्हें भगत सिंह के साथ अंग्रेज़ हुकूमत ने फांसी पर चढ़ा दिया था।

सुखदेव की यादों के साथ-साथ लुधियाना शहर में उनका घर भी उपेक्षा का शिकार है जहाँ उनका जन्म हुआ था। बरसों तक तो ज्यादातर लोगों को पता भी न था कि उनका घर है कहाँ। ये घर बुरी हालत में था और यहाँ गाय भैंसे घूमती थीं।

सुखदेव के वंशजों और नागरिक समाज के कुछ लोगों के निजी अभियान के बाद सरकार नींद से जागी और उसने आज़ादी के 65 वर्षों बाद अब जाकर सुखदेव के घर को अपने कब्जे में लिया है।

लुधियाना में रहने वाले सुखदेव के वंशज विशाल नैयर बताते हैं कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। वे कहते हैं, "सच कहूं तो मेरी आंखें भी तब खुली जब मैने एक स्थानीय अखबार में एक सर्वे पढ़ा। सर्वे में बच्चों ने कहा कि भारत को प्रकाश सिंह बादल ने आज़ाद करवाया है और भगत सिंह देश के पहले प्रधानमंत्री हैं। तब मुझे लगा कि कुछ करना होगा। हमने सुखदेव जी का घर सरकार को समर्पित कर दिया था लेकिन छह साल बाद भी वहां कोई स्मारक नहीं बना है। मैने कई दिन बैठकर अनशन किया, कोर्ट में गुहार लगाई। सुखदेवजी के मकान के लिए अनशन करने के कारण मुझे नौकरी से निकाल दिया गया था। "

सुखदेव के नाम पर लड़ाई

लेकिन अब इस घर के और भी दावेदार सामने आ गए हैं। मालिकाना हक के लिए सरकार और स्थानीय लोगों के बीच जंग छिड़ी हुई है।

सरकार ने घर बंद कर इस पर ताला डाल दिया है। जबकि स्थानीय लोगों का कहना है कि आज़ादी के बाद से उन्होंने इस घर को सेहज कर रखने की कोशिश है और अब घर पर उन्हीं का हक़ है।

सुखदेव के नाम पर ट्रस्ट चलाने वाले इन लोगों ने घर के बाहर बनी चारदिवारी कर अपना ताला लगाया हुआ है। ये विडंबना ही है कि भारत को गुलामी की बेड़ियों से मुक्ति दिलाने में भूमिका निभाने वाले सुखदेव का अपना घर कई तालों की बेड़ियों में कैद है। आपसी तकरार के कारण यहां कोई स्मारक नहीं बन पाया है।

हाल ही में पंजाब चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए जब लुधियाना जाने का मौका मिला था तो मैं सुखदेव का घर देखने का मोह छोड़ नहीं पाई थी। लेकिन वहां तक जाना आसान नहीं था।

विशाल मुझे गाड़ी में उस मोहल्ले तक ले गए जहाँ सुखदेव का घर है लेकिन तंग गलियों में आगे का सफर मुझे अकेले ही पैदल तय करना था। वो इसलिए क्योंकि उस मोहल्ले के लोगों का सुखदेव के वंशजों से छत्तीस का आंकड़ा है। सकरी गलियों से होते हुए मैं जैसे ही इलाके में पहुँची मोहल्ले के मुखिया ने मुझे जाने से रोका।

काफी ज्यादा पूछताछ और बीबीसी का माइक दिखाने के बाद ही उन्होंने मुझे उस घर के नजदीक जाने दियाअगर उनका सरकार से कोई झगड़ा है भी तो भी सुखदेव या भगत सिंह का घर बाहर से देखने के लिए इतनी बंदिश और पहरा मुझे काफी अटपटा लगा।

स्थानीय नागरिक अशोक थापर कहते हैं, "पिछले 80 सालों से यहां के लोगों ने इस घर को देखा है। हमने कई लाख देकर इस घर को खाली करवाया, कोई महिला यहां रहने लगी थी। हमने ट्रस्ट बना यहां कई कार्यक्रम भी किए हैं। अब सरकार जबरदस्ती कब्जा करना चाहती है."

मौत तक निभाई दोस्तीसुखदेव ने भगत सिंह, राजगुरु, बटुकेश्वर बत्त, चंज्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर कई ऐसे कारनामों को अंजाम दिया था जिसने अंग्रेज सरकार की नींव हिलाकर रख दी थी।

सेंट्रल एसेंबली के सभागार में बम और पर्चे फेंकने और फिर गिरफ़्तारी की घटना, और अन्य योजनाओं को भले ही भगत सिंह समेत दूसरे क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया हो लेकिन इतिहासकार कहते हैं कि सुखदेव इस युवा क्रांतिकारी आंदोलन की नींव और रीढ़ थे।

सुखदेव बचपन में अपने ताया के पास लायलपुर चले गए थे। ये इलाका़ अब पाकिस्तान में है। भगत सिंह और सुखदेव बचपन से ही गहरे दोस्त थे। सुखदेव पर किताब लिख चुके डॉक्टर हरदीप सिंह के अनुसार उस समय हुई बैठक में एसेंबली में बम फेंकने का जिम्मा पहले भगत सिंह को नहीं दिया गया था।

वे कहते हैं, "रेवोलूशनरी पार्टी की बैठक में फैसला लिया गया कि सेंट्रल एसेंबली में बम गिराना है। इस बैठक में सुखदेवजी मौजूद नहीं थे। पार्टी ने फ़ैसला लिया कि भगत सिंह को नहीं भेजा जाएगा क्योंकि पुलिस पहले से ही सांडर्स कत्ल मामले में उन्हें ढूँढ रही थी। पार्टी नहीं चाहती थी कि भगत सिंह पुलिस के हाथ लगें। लेकिन सुखदेवजी ने फैसला पलटते हुए कहा कि उनके दोस्त भगत सिंह ही जाएंगे। सुखदेव चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति जाकर एसेंबली में पर्चे फेंके और गिरफ़्तारी दे जिसकी आवाज़ सुनकर जनता जागृत हो."

डॉक्टर हरदीप सिंह बताते हैं, "इस फैसले पर कई लोगों ने सुखदेव को कठोर दिल भी कहा कि उन्होंने अपने दोस्त भगत सिंह को मौत के मुंह में भेज दिया। सुखदेव का तर्क सुनने के बाद भगत सिंह को उनकी बात सही लगी। किताबों में हमने यही पढ़ा है कि भगत सिंह के गिरफ़्तार होने के बाद सुखदेव बंद कमरे में बहुत रोए थे कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे दोस्त को कुर्बान कर दिया."

सुखदेव और भगत सिंह की गहरी दोस्ती को मौत भी नहीं तोड़ सकी। मौत में भी उन्होंने एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ा। साल 1931 में 23 मार्च यानी आज ही के दिन अग्रेज हुकूमत ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षडयंत्र मामले में फांसी के तख्ते पर लटका दिया था। यकीनन भारत को गुलामी की बेड़ियों से छुड़ाने में अपनी जान गंवाने वालों के लिए कई समारोह हो रहे हैं। लेकिन मुझे रह रह कर सुखदेव का घर याद आ रहा है। मालिकाना हक जिसका भी हो लेकिन ये घर एक अदद स्मारक का हकदार है।

लेकिन अभी तो ये घर आपसी लड़ाइयों में जकड़ा हुआ है और कई तालों में बंद है। सुखदेव ने आज़ाद भारत की परिकल्पना की थी लेकिन उनके घर तक जाने के लिए बंदिशों और पूछताछ से होकर गुज़रना पड़ता है। घर के बाहर लगी सुखदेव की मूर्ति इस तमाशे को मूक दर्शक की तरह देखने को मजबूर है।

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