ये तीन सौ लोग उस वक़्त इस सर्द माहौल में रखे गए, जब उनके दिलों ने धड़कना बंद कर दिया था. पूरी तरह से मरने से पहले उनके दिमाग़ को फ्रीज़ कर दिया गया था. इसे ''विट्रीफ़िकेशन'' कहा जाता है.

क़ानूनी तौर पर ये सभी मर चुके हैं लेकिन अगर वो बोल सकते तो कहते कि उनके शरीर अभी लाश में तब्दील नहीं हुए हैं. डॉक्टरी ज़बान में कहें तो वो लोग सिर्फ़ बेहोश हुए हैं.

किसी को नहीं मालूम कि इन लोगों को फिर से ज़िंदा किया जा सकता है या नहीं, लेकिन बहुत से लोग ये मानने लगे हैं कि मरकर हमेशा ख़त्म होने से ये बेहतर विकल्प है.

अभी दुनिया में क़रीब 1250 ऐसे लोग हैं जो क़ानूनी तौर पर ज़िंदा हैं, वो ऐसी हालत में रखे जाने का इंतज़ार कर रहे हैं यानी क्रायोप्रेज़र्वेशन का इंतज़ार कर रहे हैं.

अमरीका के अलावा ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के दूसरे देशों में अब ऐसे केंद्र खोले जा रहे हैं, जहां लोगों के शरीर को बेहद सर्द माहौल में रखा जा रहा है. इस उम्मीद में कि शायद वो कभी ज़िंदा हो जाएं.
फ्रीज़र में रखा दिमाग़ बरसों बाद काम आएगा

अमरीका के मिशीगन के क्रायोनिक्स इंस्टीट्यूट के डेनिस कोवाल्स्की कहते हैं किसी को जमा देना, मौत के बाद किसी इंसान के साथ होने वाली दूसरी सबसे बुरी घटना है. मिशीगन का ये इंस्टीट्यूट दुनिया की सबसे बड़ी क्रायोनिक्स सुविधा वाला केंद्र है.

डेनिस कहते हैं कि कोई भरोसे से नहीं कह सकता कि सर्द माहौल में जमा दिए गए ये लोग फिर से जी उठेंगे.

लेकिन ये पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि अगर मरने के बाद आप जला दिए गए या दफ़न कर दिए गए तो फिर कभी नहीं जी सकेंगे.

यूं तो ''डिमॉलिशन मैन'' या ''वनीला स्काई'' जैसी हॉलीवुड फ़िल्मों में इस संभावना को तलाशने की कोशिश की गई थी.

बहुत से वैज्ञानिक ये मानते हैं कि किसी को बेहद सर्द माहौल में जमा देने के बाद उसे फिर से ज़िंदा किए जाने की संभावना है.

कुछ ऐसे तजुर्बे किए गए हैं. एक ख़रगोश के दिमाग़ को क्रायोनिक्स तकनीक से बेहद सर्द माहौल में रखा गया था. कई हफ़्तों बाद भी दिमाग़ सुरक्षित था. हालांकि खरगोश का शरीर अभी भी मुर्दा था.

हालांकि मरे हुए खरगोश का दिमाग फिर से चलाना और किसी मरे इंसान को ज़िंदा करने में बहुत फ़र्क़ है.

लेकिन, बहुत से वैज्ञानिक ये मानते हैं कि आगे चलकर, ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' या किसी को बहुत की ठंडे माहौल में रखकर फिर से उसमें जान फूंकना, बेहद आम हो जाएगा.

कुछ इस तरह जैसे लोग सर्दी-ज़ुकाम का इलाज करते हैं.
फ्रीज़र में रखा दिमाग़ बरसों बाद काम आएगा

अमरिका के कैलिफोर्निया में सेंस रिसर्च फाउंडेशन है. ये फ़ाउंडेशन उम्र की वजह से होने वाली बीमारियों के बारे में रिसर्च करता है. इसकी प्रमुख ऑब्रे डे ग्रे कहती हैं कि ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' एक तरह की दवा ही है.

मान लीजिए कि ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' की वजह से कुछ लोग आगे चलकर ज़िंदा हो जाते हैं. तो उनके पास उस दौर में लोगों को सुनाने के लिए सिर्फ़ कहानियां नहीं होंगी. मगर उन्हें एक अजनबी दौर में अजनबियों के बीच अपनी ज़िंदगी की इमारत फिर से खड़ी करने की चुनौती होगी.

ये इस बार पर तय करेगा कि वो किस दौर में फिर से जी उठेंगे. उस वक़्त समाज की हालत कैसी होगी. इन सवालों के जवाब कोरी कल्पना ही है.

''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' के ज़रिए ज़िंदा होने वाले इंसान का तजुर्बा कैसा होगा, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि वो मरने या जमा दिए जाने के कितने वक्त बाद फिर से जी उठेगा. कुछ लोग कहते हैं कि इसमे तीस से चालीस बरस लगेंगे. हो सकता है कि इतने वक़्त बाद उस इंसान के ज़िंदा होने पर उसके पोते-पोती ही उसके स्वागत के लिए खड़े हों.

लेकिन, अगर फिर से ज़िंदा होने में सौ बरस या इससे ज़्यादा वक़्त लगेंगे तो कम से कम परिजन और रिश्तेदार तो उस शख़्स को भूल चुके होंगे.

इन हालात से निपटने के लिए डेनिस कोवाल्सकी जैसे लोग ख़ुद के अलावा अपनी बीवी और बच्चों को भी मरने के बाद ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' में रखने का रजिस्ट्रेशन करा रहे हैं. ताकि कोई न कोई परिजन फिर से ज़िंदा हुए शख़्स का स्वागत करने को तो हो.
फ्रीज़र में रखा दिमाग़ बरसों बाद काम आएगा

लेकिन, अगर कोई परिजन नहीं भी होगा तो इतनी बुरी बात नहीं होगी.

डेनिस कहते हैं कि आप किसी विमान से कहीं जा रहे हों. जिसमें आपके सारे परिजन-रिश्तेदार हों. विमान हादसे में सारे के सारे मारे जाएं, सिवा आपके. तो क्या आप ख़ुदकुशी कर लेंगे? नहीं न! आप अपनी ज़िंदगी को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश करेंगे.

तो ऐसा ही ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' से फिर से ज़िंदा हुए लोग भी करेंगे. नए दोस्त बनाएंगे. नया घर बसाएंगे. परिवार बढ़ाएंगे.

कुछ जानकार कहते हैं कि अगर ऐसे मर चुके लोग फिर से ज़िंदा होंगे और उनके पास कुछ नहीं होगा. तो, उन्हें दूसरों की मदद की ज़रूरत होगी. हालांकि सवाल वही कि उनकी मदद करेगा कौन?

इस सवाल के जवाब में लोगों को सर्द माहौल में रखने का काम करने वाली संस्थाएं कुछ पैसे बाज़ार में लगा रही हैं. ताकि भविष्य में अगर इंसान ज़िंदा हो तो उसकी मदद के लिए कुछ रकम तैयार हो.

हालांकि ये भी हो सकता है कि जब तक ये लोग ज़िंदा होंगे पैसे का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाए. शायद उस वक़्त लोगो को जीने के लिए काम करने की ज़रूरत ही न हो.

तमाम बीमारियों से लड़कर जीतने का फ़न आ जाएगा. तो ऐसे समाज के लोगों को काम करने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी. लोगों के रहने खाने का पर्याप्त इंतज़ाम होगा.
फ्रीज़र में रखा दिमाग़ बरसों बाद काम आएगा

हालांकि ऐसे दौर में भी ज़िंदा होने वाले लोगों को दूसरी चुनौतियों का सामना करना होगा. जैसे बदले हुए दौर में ख़ुद को एडजस्ट करने की चुनौती. समाज में फिर से अपनी जगह बनाने, सम्मान हासिल करने की चुनौती.

नए माहौल से तालमेल बिठाने में उन्हें बड़ी मुश्किल होगी. उन्हें अपने शरीर के साथ तालमेल बिठाने में भी दिक़्क़त हो सकती है. क्योंकि ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' में तो सिर्फ़ दिमाग़ को जमाया जाएगा.

ऐसे लोग ज़िंदा होंगे तो ख़ुद से सवाल करेंगे कि आख़िर मैं हूं तो कौन?

हालांकि कुछ जानकार ये भी कहते हैं कि ये सब मामूली दिक़्क़तें हैं. क्योंकि एकदम अनजान माहौल में पैदा होकर भी इंसान, ख़ुद को हर तरह से ढाल लेता है.

डेनिस उन लोगों की मिसाल देते हैं जो ग़रीब देशों से अमीर मुल्क़ों में जाकर बसते हैं. वो एकदम अलग माहौल में ख़ुद को ढाल ही लेते हैं.

हालांकि सवाल ये भी है कि पुराने दौर के लोग, नए ज़माने के इंसानों के साथ कैसे तालमेल बिठाएंगे? क्योंकि बदलते दौर के साथ इंसान की सोच, उसके तजुर्बे एकदम अलग हो जाते हैं. अलग दौर के लोगों में तालमेल बिठाना बहुत मुश्किल होता है.
फ्रीज़र में रखा दिमाग़ बरसों बाद काम आएगा

वैज्ञानिक कहते हैं कि ''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' से ज़िंदा लोगों के दौर में सौ दो सौ सालों का फ़र्क़ हुआ तो तालमेल बिठाना बहुद मुश्किल होगा. सब-कुछ इतना बदल जाएगा कि लगेगा कि हम किस दुनिया में आ गए आख़िर.

ये भी हो सकता है कि दिमाग़ को फ्रीज करने से पहले उसमें आने वाले दौर की कुछ चीज़ें अंदाज़ से डाल दी जाएं. ताकि जब इंसान ज़िंदा हो तो उसे बदले दौर में तालमेल बिठाने में ज़्यादा दिक़्क़त न हो.

अमर होना बड़ी चुनौती भी बन जाएगा. फिर से ज़िंदा हुए दिमाग़ का मतलब है कि मौत को हरा दिया जाना. मौत, इंसानों के अस्तित्व का अहम हिस्सा है. उसका ख़ात्मा, नए सिरे से नए तरह के सवाल खड़े करेगा.

''क्रायोप्रेज़र्वेशन'' से फिर से ज़िंदा किया गया इंसान क्या वाक़ई वही इंसान माना जाएगा जिसका वो दिमाग़ था. क्योंकि बदन तो बदल चुका होगा. तो वैसा ही इंसान फिर से ज़िंदा हो गया है, ये दावा करना ही ग़लत होगा.
फ्रीज़र में रखा दिमाग़ बरसों बाद काम आएगा

इन तमाम सवालों के बावजूद बहुत से लोग फिर से ज़िंदा होने के विचार को एक मौक़ा देने के हक़ में हैं. मरकर हमेशा के लिए गुमनाम होने से बेहतर तो यही है कि दिमाग़ के तौर पर ही सही, किसी का अस्तित्व तो रहेगा.

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