- गोरखपुर में ही रहकर लिखी हैं कई कहानियां, मगर अब सिर्फ दो दिन ही किए जाते हैं याद

- गोरखपुर में महात्मा गांधी की स्पीच सुनकर छोड़ दी थी सरकारी नौकरी

- शोधपीठ को भी एक्टिव होने का इंतजार

GORAKHPUR: मुबारक खां शहीद की दरगाह है, वहां ईदगाह है, जहां ईद और बकरीद की नमाज पढ़ी जाती है। जिनकी कहानी 'ईदगाह' के किरदार यहीं से लिए गए हैं और उनकी कहानी इसी अस्ताने के इर्द-गिर्द लगने वाले मेले की कहानी बयां करती है। बर्फखाना रोड पर स्थित बर्डघाट में होने वाली रामलीला और उसके किरदारों को जिनकी कहानी 'रामलीला' में जगह मिली। आसपास घरों में एक बूढ़ी औरत काम किया करती थी। वह अपने घर को चलाने के लिए बर्तन माजा करती। जिसे उन्होंने अपनी कहानी का हिस्सा बनाया और 'बूढ़ी काकी' की दास्तान लिख डाली। ऐसे मुंशी प्रेमचंद अब गोरखपुर की यादों से खोते जा रहे हैं। उनका ठिकाना है और कहानी में शामिल सभी जगह भी वैसे ही मौजूद हैं, लेकिन मुंशीजी सिर्फ साल में दो दिन ही लोगों की जुबां पर आते हैं। जयंती और पुण्यतिथि के अलावा साल भर उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं हैं। अगर यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मुंशीजी सिर्फ किताबों का हिस्सा बनकर रह जाएंगे और शहर से गहरा-नाता होने के बाद भी उन्हें कोई जानने-पहचानने वाला भी न होगा।

पांच साल का बिताया वक्त

कथा सम्राट ने 1916 से 1921 तक का वक्त नार्मल स्थित प्रेमचंद निकेतन में बिताया। 1903 में बनी इस बिल्डिंग को टीचर ट्रेनिंग के वार्डन के लिए बनाया गया था, जब मुंशीजी की तैनाती यहां हुई, तो उन्हें यहीं पर रहने के लिए क्वार्टर मिला। नौकरी मिलने के बाद जब 1916 में प्रेमचंद गोरखपुर आए, तो शुरुआत में उन्होंने अपनी नौकरी दिल लगाकर की। मगर 15 फरवरी 1921 में बाले मियां के मौदान में हुई महात्मा गांधी की सभा में उनका भाषण सुनने के बाद उन्होंने टीचिंग सर्विस और टीचर ट्रेनिंग कॉलेज के वार्डन पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उन्होंने कहानियां लिखनी शुरू की। सोज-ए-वतन उनकी पहली रचना है, जिसे उन्होंने उर्दू में लिखा था। ये अंग्रेजों के जुल्म की दास्तान बताती है। वहीं गोदान भी गोरखपुर और आसपास के किसानों के दर्द को बयां करती है। वीर बहादुर सिंह जब सीएम थे, तो उन्होंने मुंशी जी की स्मृतियों को बचाने के लिए एक पार्क बनवाया। उसमें 1996 में प्रेमचंद साहित्य संस्थान ने प्रेमचंद निकेतन से प्रेमचंद पुस्तकालय और साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियां शुरू कर दीं, जो आज भी मुंशी जी की यादों को ताजा करती हैं।

यहां से जुड़ी हैं यह कहानियां

कफन

गबन

गोदान

ईदगाह

नमक का दरोगा

रामलीला

बूढ़ी काकी

दो बैलों की जोड़ी

पूस की रात

मंत्र

बॉक्स

प्रेमचंद पीठ की नहीं है कोई सुध

यूनिवर्सिटी में शुरू से ही स्थापित शोध पीठों के हालात कभी भी अच्छे नहीं रहे हैं। इतिहास के पन्नों को पलटें तो यहां तीन शोध पीठ की स्थापना हो चुकी है, लेकिन इसका रिजल्ट निगेटिव ही रहा है। पहले एंशियंट हिस्ट्री डिपार्टमेंट में राहुल सांकृत्यायन पीठ की स्थापना हुई थी। लेकिन वक्त बीतने के साथ यह भी इतिहास के पन्नों में ही बंद हो कर रह गई। वहीं पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के तहत स्थापित कांशीराम शोध पीठ हो या फिर ¨हदी विभाग के तहत प्रेमचंद शोध पीठ वर्षो से दोनों ही शोध पीठों में कोई काम नहीं हुआ। सेशन 2007-08 में तत्कालीन बसपा सरकार ने पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट में कांशीराम शोध पीठ की स्थापना की थी। शुरुआत में इसके लिए करीब 15 लाख रुपए राज्य सरकर से मिले, जिससे दो-ढाई साल तक काम हुए। इसी तरह से ¨हदी विभाग के प्रेमचंद पीठ में एक अदद प्रोफेसर का पद अर्से से खाली है, जिसकी वजह से यहां भी काम ठप पड़ा हुआ है।