Gulabo Sitabo Review in Hindi: गुलाबो सिताबो मूवी में दो किरदार हैं। मिर्जा ( अमिताभ बच्चन) और बांके ( आयुष्मान खुराना) और दोनों निहायती बदतमीज और अव्वल दर्जे के लालची हैं। नाम हैं मिर्ज़ा, मगर नाम पर मत जाइएगा। मिर्ज़ा ग़ालिब की तरह प्यार मोहब्बत से गुलाबो सिताबो वाले मिर्ज़ा (अमिताभ बच्चन ) का कोई राब्ता नहीं है जनाब। इसके बावजूद इस पिक्चर में प्रेम कहानी उतनी ही मुक्कमल तरीके से गढ़ी गई है, जितनी आपकी चाय में इलायची की सुगंध. मिर्ज़ा को रेंट चाहिए, बांके को देना नहीं है। दोनों अब लड़े तो तब लड़े, लेकिन हवेली पर सब गिद्ध की तरह शिद्दत से नजर जमाये बैठे हैं कि हवेली कब हथिया लें। जैसा कि अनुराग कश्यप गैंग्स में कह गये हैं। एक ही जान है, अल्लाह लेगा कि मोहल्ला। और ऐसे में भंवरे ने खिलाया फूल, फूल कोई और राजकुमार लेकर निकल लेता है। अब ऐसे में राजकुमार कौन है, कौन है राजकुमारी और हवेली आख़िरकार होती किसकी है, शूजित ने कॉमेडी सटायर के अंदाज़ में कहानी बयां करने की कोशिश तो की है। एक वाक्य में कहें तो कहानी का सार यहीं है कि एक जौहरी को है हीरे की पहचान होती है। पढ़ें पूरा रिव्यू

फिल्म : गुलाबो सिताबो

कलाकार : अमिताभ बच्चन, आयुष्मान खुराना, फारूख जफ़र, बृजेन्द्र काला, विजय राज.

निर्देशक : शूजित सिरकार

स्टोरी, स्क्रीनप्ले : जूही चतुर्वेदी

ओटीटी : Amazon Prime Video

रेटिंग : 2.5 STAR

क्या है कहानी

गुलाबो सिताबो दो कठपुतलियाँ हैं, और दोनों लड़ती हैं। तमाशा होता है। लोग मजा लेते हैं। और यही है शूजित के टॉम एंड जेरी। पुराना लखनऊ का एक इलाका है। वहां एक फातिमा महल है। नाम पर मत जाइएगा। महल नाम है, मगर ताजमहल जैसा खूबसूरत और आलीशान नहीं। वहां की मालकिन हैं, फातिमा बेगम (फारूख जफ़र)। उम्र 90 पार है, लेकिन बेगम के नखरे अब भी जवां हैं। मिर्ज़ा (अमिताभ बच्चन) 78 के हैं। उनकी हवेली पर नजर है और उसी चक्कर में फातिमा बेगम को पटाया था। और इस बीच आकर बैठ गया बांके, जो कि किरायेदार है। जो कि किराया नहीं, धौंस देता है। इस बीच में हवेली सबको चाहिए. सरकार, वकील, अर्कियोलोजी सब सीन में आ जाते हैं। मगर हवेली मिलती किसको है। यह देखना दिलचस्प हो सकता था। मगर अफ़सोस है ऐसा हो न सका है। ह्यूमन टच तो है फिल्म में। मगर शूजित-जूही टच बिल्कुल नदारद है।

क्या है अच्छा

अब कहानी गढ़ने में चूक हुई है, अव्वल मगर इस फिल्म की जान, फिल्म की तमाम महिला किरदार हैं। जूही और शूजित ने उन्हें क्या खूब गढ़ा है। फिर चाहे वह फातिमा ( फारुख), फौजिया (सृष्टि) या फिर गुड्डो हो। लीड किरदारों के होते हुए महफ़िल यह लूट ले जाती हैं। खासकर फातिमा बेगम ने तो न्योछावर देने वाला अभिनय किया है। फिल्म की जान वह और उनके संवाद हैं। इनके अलावा लखनऊ का वास्तविक रूप शूजित ने अपने कैनवास से अच्छा दिखाया है। अमिताभ बच्चन से हमें यह सीख लेनी चाहिए कि उम्रदराज होने के बावजूद, अब भी किरदारों को किस शिद्दत से निभाते हैं वे। संगीत कहानी के मार्फिक अच्छा है।

क्या है बुरा

शूजित और जूही का अपना एक कॉमेडी टच होता है, जिसमें दर्शक को बहुत मशक्कत करने की जरूरत नहीं पड़ती। मगर इस फिल्म में पूरी तरह गुम है। काफी तलाशने से भी नहीं मिलती, उम्मीद होती है कि अगले दृश्य में अमा अब मिलेगा, अब मिलेगा। मगर पिक्चर खत्म हो जाती है, मिलता नहीं है। बेवजह कुछ किरदार थोपे लगे हैं। लिहाजा उनकी मौजूदगी कहानी को और कमजोर बनाती है। जूही अपने संवादों के लिए लोकप्रिय हैं। वह इसमें माहिर हैं। इस बार पता नहीं उनका वह मास्टर स्ट्रोक नजर नहीं आता। फिल्म का प्रोमोशन कई तरह के टंग ट्विस्टर के साथ किया गया है और अफसोस कि फिल्म की कहानी वैसी ही टंग ट्विस्टर बन कर रह गई है। उलझी हुई। काफी कोशिशों के बावजूद समझ नहीं आती।

अभिनय

आयुष्मान खुराना न जाने इस पिक्चर में किस दुनिया की सैर पर थे। पहले दृश्य से अंतिम दृश्य तक वह अपनी पिछली फिल्मों के किरदारों की नकल करते नजर आये हैं। वह इस फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं। शिद्दत और मेहनत अमिताभ ने की है। बुड्ढे, खूसट मिर्जा के रूप में। उन्होंने अपने लहजे, अपने अंदाज़ सब पर मेहनत की है। मगर फिल्म की शान फातिमा यानि फारुख जफर हैं। बेहद बुजुर्ग होने के बावजूद जिस मोहब्बत से उन्होंने फातिमा का किरदार निभाया है, उफ उनके सामने सारी जवां बेगमें पानी मांगने लगें। इनके अलावा सृष्टि ने अव्वल दर्जे का काम किया है। बृजेन्द्र काला और विजय राज ने उबाऊ काम किया है।

वर्डिक्ट

अमिताभ और आयुष्मान के फैन्स को बेसब्री से इस फिल्म का इंतजार तो था। मगर उन्हें निराश कर सकती है फिल्म. मगर इसके बावजूद एक बार वह देखेंगे जरूर. अच्छा हुआ कि फिल्म बड़े पर्दे पर नहीं आई. वर्ना आयुष्मान की हिट मशीन को धक्का लग सकता था।

Review by: अनु वर्मा

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