कानपुर (इंटरनेट डेस्क)। Hartalika Teej 2020: भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया को पड़ने वाली हरतालिका तीज इस बार 21 अगस्त को मनाई जाएगी। यह व्रत एक उत्‍सव की तरह लगभग पूरे देश में मनाया जाता है लेकिन उत्तर भारत में इसका विशेष महत्व है। इस व्रत में शिव और माता पार्वती की पूजा होती है। दृकपंचाग डाॅट काॅम के मुताबिक इस दिन रेत से बनी शिव-पार्वती की प्रतिमा का विधिवत पूजन किया जाता है व हरतालिका व्रत कथा को सुना जाता है। यह व्रत कुमारी कन्याएं और सुहागिन महिलाएं दोनों ही रख सकती हैं। सुहागिन महिलाएं अखंड साैभाग्य तो कन्याएं मनचाहे वर के लिए इसे कर सकती है। मान्यता है कि एक बार व्रत रखने के बाद इस व्रत को आजीवन रखा जाता है। गंभीर रूप से बीमार होेने पर कोई दूसरी महिला या फिर उसका पति ये व्रत कर सकता है।
व्रत विधि
हरतालिका तीज के व्रत में विधिविधान और इसके कठोर नियमों का पालन करना जरूरी होता है।हरतालिका तीज का व्रत निराहार व निर्जल रखने की परंपरा है। इस व्रत में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखा जाता है। हरतालिका तीज के व्रत में महिलाओं को सोना नहीं चाहिए और क्रोध भी नहीं करना चाहिए। पौराणिक कथाओं के मुताबिक जो महिलाएं इस व्रत में सोती हैं वो अजगर के रूप में जन्‍म लेती हैं। वहीं जो महिलाएं का्रेध करती हैं उनका व्रत फलविहीन हो जाता है। वहीं व्रत के दाैरान फल या या खाना खाने वाली महिलाएं अगले जन्‍म में वानर बन जाती है और जल पीने वाली अगले जन्‍म में मछली बन जाती हैं। वहीं दूध पीने वाली स्त्रियां अगले जन्‍म में सर्प योनि में जन्‍म लेती है।
पूजन विधि
हरितालिका तीज पर मिट्टी या रेत से शिव-पार्वती की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। इसके बाद इन्हें लकड़ी की चाैकी पर लाल कपड़ा बिछाकर आसन दिया जाता है। चाैकी को फूलों व केले के पत्तों से सजाया जाता है। चाैकी के सामने एक कलश भी रखा जाता है। इस दाैरान शिव-पार्वती पर जल छिड़ककर उन पर फूल व फल चढ़ाए जाते है। धूप, दीप, मेवा, पंचामृत, पान, मिठाई आदि अर्पण किया जाता है। माता पार्वती पर मेंहदी, चूड़ी, सिंदूर, महवर, बिंदी समेत सुहाग का सारा सामान चढ़ाया जाता है। इसके बाद हरतालिक तीज की कथा पढ़ी व सुनी जाती है। पूजन के बाद हवन और फिर आरती की जाती है। इसके बाद दूसरे दिन सुबह शिव-पार्वती की प्रतिमाओं का नदी में विसर्जन होता है।
कथा
शास्‍त्रों के मुताबिक राजा हिमवान की पुत्री पार्वती जी ने बालकाल में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय पर गंगा तट पर अन्‍न त्‍याग घोर तप शुरू कर दी थी। इस पर उनके माता पिता काफी परेशान थे तभी एक दिन नारद जी राजा हिमवान के पास पार्वती के लिए भगवान विष्णु की ओर से विवाह प्रस्‍ताव लेकर पहुंचे। हालांकि पार्वती जी ने प्रस्‍ताव स्‍वीकार नहीं किया। उन्‍होंने अपनी एक सखी से कहा कि वह सिर्फ भगवान शंकर को ही पति के रूप में स्‍वीकार करेंगी। सहेली की सलाह पर पार्वती जी एक घने वन में एक गुफा में भगवान शिव की आराधना में लीन हो गई। भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र में पार्वती जी ने रेत से शिवलिंग का बनाकर पूजा की और रातभर जागरण किया। ऐसे में उनके तप और आराधना से खुश होकर भगवान शिव ने माता पार्वती जी को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था।

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