हर किसी से अपना बना लेते थे मो। शाहिद

खेल के साथ ही बातचीत में भी था जादूगर जैसा अंदाज

VARANASI

खास नाम और रुतबा भी खास लेकिन वह शख्स बेहद आम था। किसी से पहली बार मिले या बार-बार उसका पहला सवाल होता था 'कैसे हो पार्टनर'। जिस तरह से हॉकी स्टिक के साथ मैदान पर उनकी जादूगरी चलती थी उसी तरह से बातचीत का लहजा भी था। कुछ ऐसे थे इंडियन हॉकी टीम के पूर्व कैप्टन ओलम्पियन और ड्रिबलिंग किंग मो। शाहिद। लगभग सारे देशों को घूमने वाले शाहिद को बनारस हमेशा खींच लाता था। खेल के शिखर पर रहने के दौरान उन्हें बड़े शहरों में बसने का ऑफर मिला। लेकिन बनारस की मिट्टी से ऐसा लगाव कि वे साफ मना कर देते थे। और कहते थे कि बनारस को आखिरी दम तक नहीं छोड़ूंगा।

अब यादें रह गयीं

मो। शाहिद से मिलने वाला उनका फैन हो जाता था। माहौल को अपने शेरो-शयरी से हल्का करने का उनका अंदाज सभी को भा जाता था। घर हो या बाहर एक जैसा रहना उनकी फितरत थी। उनके बड़े भाई रेयाजुद्दीन राजू ने नम आखों से उनकी यादों का जिक्र करते हुए बताया कि हम भाई यहीं कचहरी पर अपने पुश्तैनी घर के बाहर गलियों में ईट रखकर हॉकी खेला करते थे। इसके बाद कमिश्नरी और फिर पन्नालाल पार्क में जुट जाते थे हॉकी खेलने। हम सबमे शाहिद के कदम और हॉकी स्टिक सबसे तेज चलती थी। ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले और कइयों गोल दागने वाले मो। शाहिद आज हमारे बीच नहीं रहे लेकिन उनकी यादें हमेशा जिंदा रहेंगी।

बिन कहे बहुत कुछ कहा

शाहिद अपने दर्द को अपनों तक से शेयर नहीं करते थे। फिर चाहे वह हॉकी खेलने का दौर हो या जिंदगी का आखिरी वक्त। वे अपने दर्द को बयां नहीं करते थे। आखिरी वक्त में भी कुछ नहीं कहा। बड़े भाई राजू ने बताया कि उस दिन ख्9 जून को बीएचयू से मेदांता ले जाया जा रहा था। उस दौरान उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा लेकिन जाते वक्त घर वालों के साथ पूरे घर को निहारा। शायद उन्हें इस बात का इल्म था कि अब जिंदगी और मौत के इस खेल में जिंदगी हारने वाली है और मौत साथ ले जाने वाली है।