''इस लंबी मियाद में इंसानों की कमी मुझे सबसे ज़्यादा खलती है.'' फिर अपने आसपास रखी किताबों, पौधों और कुछ खिलौनों की ओर इशारा करते हुए वे बोलती हैं, ''ये बेजान चीज़ें ही मेरी दोस्त हैं. मैं बहुत बदल गई हूं. हालात ने मुझे एक अलग इंसान बना दिया है.''

आज़ाद भारत में नेतागीरी, समाजसेवा और आंदोलन करने वाले तो बहुत हैं. पर सरकार के ख़िलाफ़ विरोध जताने के ‘जुर्म’ में इतना वक़्त क़ैद में किसी ने भी नहीं काटा है, जितना इरोम शर्मिला ने.

वह 13 साल से मणिपुर के एक अस्पताल में न्यायिक हिरासत में हैं. 15 गुणा 10 फ़ीट के अस्पताल के उस छोटे से कमरे में जब मैं उनसे मिलने पहुंची, तो उनके चेहरे पर अभी भी मुस्कान तैरती दिखी.

13 साल पहले, 28 वर्ष की उम्र में इरोम ने सरकार के एक फ़ैसले का विरोध किया और रास्ता चुना आमरण अनशन का. वही रास्ता जिस पर बहुत पहले  महात्मा गांधी चले थे.

फ़र्क़ इतना है कि इरोम के अनशन को आत्महत्या की कोशिश समझा गया और उन्हें हिरासत में ले लिया गया. नाक में नली लगाकर जबरन भोजन दिया जाने लगा और हर साल हिरासत की मियाद बढ़ाई जाती रही.

सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून

मणिपुर में 25 से ज़्यादा अलगाववादी गुट सक्रिय हैं. अलगाववाद से निपटने के लिए राज्य में कई दशकों से सेना तैनात है, जिसे सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून के इस्तेमाल की छूट है. इसके तहत सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि इस क़ानून की आड़ में कई मासूम फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मारे गए हैं.

इरोम ने मुझे बताया, ''मुझे लगता है मेरे साथ भेदभाव किया जा रहा है. महात्मा गांधी को अपनी असहमति ज़ाहिर करने की स्वतंत्रता थी, तो भारत के नागरिक के तौर पर मुझे क्यों नहीं है? मुझे क़ैद में क्यों रखा गया है?''

मक़सद का बोझ

हिरासत की इस मियाद के दौरान इरोम से बहुत कम लोगों को मिलने दिया जाता रहा है. पिछले साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने राज्य सरकार की कड़ी शब्दों में आलोचना की और कहा कि इरोम के साथ यह बर्ताव मानवता के ख़िलाफ़ है. अब पाबंदियां कुछ ढीली हुई हैं, जिसकी बदौलत मुझे शर्मिला से मुलाक़ात का मौक़ा मिला.

वह भी शर्तों के साथ. फ़ोटो नहीं, वीडियो नहीं, रिकॉर्डिंग नहीं.

साल 2000 में जब शर्मिला ने अनशन शुरू किया था, वह 28 साल की थीं. उनकी मांग थी कि  मणिपुर में लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून हटाया जाए क्योंकि उसकी आड़ में कई मासूम लोगों की जान ली जा रही है.

इरोम की उम्र अब 41 पार कर चुकी है. क़ानून अब भी प्रदेश के कई इलाक़ों में लागू है और इरोम बंधी हैं अपनी ही शर्त में.

तो वह अब क्या करना चाहती हैं? मैंने पूछा तो बोलीं, ''एक साधारण जीवन जीना चाहती हूं, जैसा पहले था, जिसका कोई मक़सद न हो.''

अब उन्हें मणिपुर में ‘आयरन लेडी’ यानी ‘लौह महिला’ कहा जाने लगा है पर इरोम को यह भी बोझ लगता है. वह कहती हैं, ''मेरे लिए यह बहुत असहज है. मुझे भगवान या नन का दर्जा नहीं चाहिए. इन उम्मीदों पर खरा उतरना मेरे बस की बात नहीं.''

वोट की अहमियत

इस मुलाक़ात से कुछ ही दिन पहले कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा चुनाव का टिकट देने का प्रस्ताव रखा था, पर इरोम ने मना कर दिया.

चाहती हूं शादी करना,वोट डालना भी,पता नहीं कब..

मैंने पूछा क्यों? तो बोलीं, ''मैं राजनीति में दाख़िल नहीं होना चाहती.'' पर साथ ही कहने लगीं कि उन्हें आम आदमी पार्टी से बहुत उम्मीद है.

इरोम ने कहा कि वह  अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में 49 दिन चली दिल्ली सरकार के काम से बहुत प्रभावित हुई हैं, ''वो सचमुच भ्रष्टाचार से लड़ना चाहते हैं. उनके शासन में लोगों ने एक बदलाव महसूस किया. मैं चाहती हूं वह लोकसभा में भी आएं.''

विजयलक्ष्मी बरारा, एसोसिएट प्रोफ़ेसर, मणिपुर विश्वविद्यालय

इरोम को पहले तीन साल के दौरान बहुत समर्थन मिला. उनकी हिम्मत से लोग प्रभावित थे. लोगों ने उनसे हड़ताल ख़त्म करने की मांग की. उन्हें डर था कि अगर इरोम की मौत हो जाती, तो मणिपुर फिर भड़क उठेगा. जब राज्य में इरोम की लोकप्रियता कम हुई, तो राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ने लगी. उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई सम्मान मिले. इरोम का ही असर है कि राजनीतिक पार्टियां अपने घोषणापत्र में लिखने लगी हैं कि हम जीते तो मणिपुर से आफ़्स्पा हटाएंगे.

भारत में हिरासत में रखे गए लोगों को वोट डालने का अधिकार नहीं है. इरोम ने भी पिछले 13 साल से मतदान नहीं किया है.

मैंने पूछा कि वोट डालने की इच्छा कभी मन में उठती है? तो बोलीं, ''पिछले समय में चुनाव से कोई उम्मीद नहीं होती थी, पर आम आदमी पार्टी का काम देखने के बाद मुझे अपने एक वोट की अहमियत भी समझ आने लगी है.''

साथी की चाह

जब मैं इरोम से मिली, तो वे भारतीय संविधान पर एक किताब पढ़ रही थीं. उनके बिस्तर के पास दर्जनों किताबें थीं. उन्होंने बताया कि उनमें से अधिकतर उनके मंगेतर डेसमंड लेकर आए हैं.

डेसमंड कूटिन्हो की एक छोटी सी तस्वीर उनके सिरहाने रखी थी. मुझे कुछ पूछने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी.

वो ख़ुद ही बोलीं, ''मैं अब शादी करना चाहती हूं. एक बार मेरा मक़सद हासिल हो जाए, तो मैं डेसमंड के साथ पति-पत्नी के रिश्ते में रहना चाहती हूं.''

जवानी के ज्यादातर साल अकेले काट चुकीं इरोम को शायद अब यही बात सबसे ज़्यादा कचोटती है.

चाहती हूं शादी करना,वोट डालना भी,पता नहीं कब..

आधे घंटे की मुलाक़ात में बहुत सारा समय चुप्पी में निकल गया. वक़्त ख़त्म होने से ज़रा पहले इरोम ने मेरी डायरी मुझसे ली और उस पर डेसमंड का ईमेल आईडी लिखकर कहा कि उस पर उनका एक संदेश भेज दूं. यह कहते हुए उनकी आंखें भर आईं और गला रुंध गया.

फिर वह कुछ कह नहीं पाईं. सब आंसुओं में लिखा था. कुछ देर मैंने उनका हाथ पकड़ा, एक रुमाल दिया.

उन्होंने ख़ुद को समेटा और मुलाक़ात का वक़्त ख़त्म हो गया. इरोम  शर्मिला फिर अकेली हो गईं.

संविधान की किताब में लोकतंत्र और आज़ादी का मतलब ढूंढने के लिए.

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