- जम्मू-कश्मीर के ऐतिहासिक संदर्भ और राजनैतिक झंझावातों पर चर्चा

- जेकेएससी व इतिहास विभाग के संयुक्त तत्वाधान में कार्यशाला आयोजित

Meerut : जम्मू-कश्मीर का विषय आते ही महाराजा हरि सिंह का जिक्र स्वाभाविक है, जो कि बदलते रुख को पहचान रहे थे। सन 1931 में उन्होंने राज्य में लोकतांत्रिक पद्धति स्थापित करने के लिए कदम बढ़ा दिए थे। देश की सबसे बड़ी रियासत होने के साथ सीमा पर होने के कारण दोनों ही देश स्वाभाविक रूप से उसे अपने साथ जोड़ने के इच्छुक थे। उक्त विचार सीसीएसयू के इतिहास विभाग और जम्मू काश्मीर अध्ययन केन्द्र (जेकेएससी) के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित 'जम्मू कश्मीर : एक नवविमर्श' विषयक कार्यशाला में हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विवि के कुलपति डा। कुलदीप चन्द्र अग्निहोत्री ने कही।

तुलना की जाए

जम्मू कश्मीर के ऐतिहासिक संदभरें और राजनैतिक झंझावातों पर चर्चा करते हुए डा। अग्निहोत्री ने कहा कि नई और पुरानी शासन व्यवस्था में कुछ काल के बाद तुलना की जाती है, जो होनी भी चाहिए, लेकिन यदि यह तुलना अकादमिक दृष्टि से या फिर प्रशासन को बेहतर बनाने के लिए की जाए तो किसी को एतराज नहीं होता। जम्मू-कश्मीर में जिस तरह पूर्व शासक महाराजा हरि सिंह की नकारात्मक छवि बनाने का प्रयास किया गया, उससे इस विषय में किए जा रहे ज्यादातर अध्ययन पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते जा रहे हैं। अत: उनके शासन काल का निष्पक्ष अध्ययन और भी ज़रुरी हो गया है।

अपनत्व का भाव आएगा

दूसरे सत्र को संबोधित करते हुए जेकेएससी के निदेशक आशुतोष भटनागर ने कहा कि जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को जन-जन तक सरल और सहज भाषा में पहुंचाया जाए, तभी देश के नागरिकों के मन में उस क्षेत्र के प्रति अपनत्व का भाव आएगा और वहां की स्थिति से खुद को संबद्ध कर सकेंगे। कार्यशाला में इतिहास विभाग की अध्यक्ष प्रो। आराधना ने अतिथियों का अभिनंदन किया।

आज की चर्चा

कार्यशाला के पांचवें दिन 'संयुक्त राष्ट्र संघ में जम्मू काश्मीर' विषय पर जम्मू विश्वविद्यालय के प्रो। केएल भाटिया और जम्मू-काश्मीर के साहित्य, संस्कृति और दर्शन पर संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ। रजनीश शुक्ल बतौर मुख्य वक्ता अपना विषय रखेंगे।