Story by : abhishek.tiwari@inext.co.in

@abhishek_awaazराजनीतिक उठापटक :

उत्तर प्रदेश की राजीनीति हमेशा ही चर्चित रही है। यहां से कई ऐसे नेता निकले जिन्होंने प्रदेश या देश की दिशा बदली। ऐसे ही एक नेता थे बाबू बनारसी दास....स्वयं में एक चलती फिरती संस्था बाबू बनारसी दास ने मूल्यों और परंपराओं की रक्षा जीवन भर की। बाबूजी के नाम से जनता में विख्यात बनारसी दास ने छात्र जीवन से ही अंग्रेजी राज के खिलाफ मोरचा खोल दिया था। उस दौरान उन्होंने भारी यातनाओं को सहा। लेकिन अपने लक्ष्य से वे न कभी भटके न ही विचलित हुए। कठिन से कठिन माहौल में भी धैर्य और सच्चाई से वे चलते रहे और सामाजिक सरोकारों के प्रति भी वे हमेशा सजग-सचेत रहे। आजादी मिलने के बाद सत्ता के बजाय बाबूजी सेवा मे ही लगे रहे। बाबू बनारसी दास की लोकप्रियता तथा जनता के बीच उनके प्रति सम्मान का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि वे 1946 के विधानसभा चुनाव में बुलंदशहर से निर्विरोध चुने गए। 1947 में बुलंदशहर में जब 20,000 से अधिक पाकिस्तान से विस्थापित बेघरबार लोग पहुंचे तो अजीब अफरातफरी थी। बाबूजी के नेतृत्व में स्थान-स्थान पर कमेटियां बनीं और उनको ठहराने तथा भोजन आदि का प्रबंध हुआ। बाबूजी के निजी प्रयासों से जिले के बहुत से व्यापारियों और उद्यमियों ने तमाम विस्थपितों को रोजगार देकर उनको नया जीवन दिया।

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अपनी संगठन क्षमता, जनाधार तथा योग्यता से बाबू जी लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा के सदस्य तो बने ही देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, कई विभागों के मंत्री, राज्यसभा के कार्यवाहक सभापति, उत्तर प्रदेश में विधानसभा के अध्यक्ष जैसे अहम पदों पर भी विराजमान रहे। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह रही कि वे जिस किसी भी पद पर रहे, एक नजीर कायम की। सबसे पहले वे 1962 से 1966 तक उत्तर प्रदेश के सूचना, श्रम, सहकारिता और संसदीय कार्य जैसे अहम विभागों के मंत्री रहे। इन दौरान राज्य में उन्होंने कई नयी योजनाऐं शुरू कीं।

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महत्वपूर्ण फैसले :

बाबू बनारसी दास 28 फरवरी, 1979 से 17 फरवरी, 1980 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे। उन्होंने अपने सीमित मुख्यमंत्री काल में भी तमाम परंपराएं कायम कीं। बाबूजी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने कालिदास मार्ग की मुख्यमंत्री की सरकारी कोठी हासिल करने के बजाय कैंट के अपने मकान में ही रहना पसंद किया। उसी तरह मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने न लंबा तामझाम रखा न सुरक्षा। हमेशा उऩका प्रयास रहा कि आम आदमी उनसे आसानी से मिल सके। उन्होंने पहली बार मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष को पारदर्शी बनाने के लिए उसके आडिट करने का आदेश दिया।

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काम :

बाबू बनारसी दास ने दलितोद्धार आंदोलन में भी अहम भूमिका निभायी थी और तमाम कठिन मौंकों पर समाज के सबसे दबे-कुचले तबकों के साथ वे खड़े हुए। उनके चलते कई जगहों पर दलित-वंचित तबकों को सार्वजनिक कुओं से पानी लेने औऱ मंदिरों तथा धर्मशालाओं में प्रवेश का मौका मिला। इसी दौरान सहभोज का आयोजन करने के साथ, उनकी बस्तियों में सफाई अभियान चला तथा अनेठ पाठशालाऐं उनके बच्चों को शिक्षित बनाने के लिए खोली गयीं।

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बाबू बनारसी दास को हमेशा व्यापक जन समर्थन लगातार मिला जिसके नाते वे चुनावों में जीतते रहे। उनकी निजी प्रतिष्ठा कितनी थी, इसका अंदाज 1983 के बुलंदशहर लोकसभा उपचुनाव से लगाया जा सकता है जिसे उन्होंने निजी प्रभाव से जीता। 1984 में भी बुलंदशहर से उनको चुनाव लडऩे को कहा गया लेकिन उन्होंने विनम्रता से अपनी अनिच्छा व्यक्त कर दी। बाबूजी कहा करते थे कि राजनीति मे भी सेवानिवृत्ति की सीमा तय कर देनी चाहिए ताकि नीचे के कार्यकर्ता ऊपर के नेताओं की मृत्यु की राह न देखनी पड़े। शायद अपनी इसी भावना के तहत ही उन्होंने 72 साल के आयु में चुनावी राजनीति से सन्यास ले लिया था।

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व्यक्ितगत जीवन :

बाबू बनारसी दास का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के बुलंदशहर जिले में सन् 1912 में हुआ था। नारसी दास की प्राथमिक शिक्षा गांव के ही प्राइमरी स्कूल में शुरू हुई। छठीं कक्षा में उन्होंने बुलंदशहर के राजकीय विद्यालय में प्रवेश लिया। बनारसी दास ने साल 1936 को विद्यावती देवी के साथ शादी की। और साल 1984 को वह दुनिया को अलविदा कह गए। बनारसी दास के बेटे अखिलेश दास राज्य सभा सदस्य रह चुके हैं। वह मनमोहन सरकार में मंत्री रहे लेकिन बाद में बसपा में शामिल हुए।

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