आज के ऐरा में एक वर्ड बहुत ही कॉमनली सुनाई देता है, 'आउट ऑफ द बॉक्स'। कोई इनवेंशन हो, रिसर्च हो, फिल्म हो, स्पोर्ट हो या कुछ भी उसे आउट ऑफ द बॉक्स का नाम दे दिया जाता है। लेकिन क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की है कि आखिर ये आउट ऑफ द बॉक्स है क्या? आउट ऑफ द बॉक्स कहां से है, ये यहीं से है, इसी यूनिवर्स से है, हमी लोग हैं, यही देश है, हमारा समाज है। आउट ऑफ द बॉक्स कहीं बाहर से नहीं आएगा, कहीं दूसरे ग्रह से नहीं आएगा। ये हमारे आस-पास ही है। जब हम किसी डिफरेंट और आउट ऑफ द बॉक्स आइडिया के बारे में बात करते हैं तो वह कहीं बाहर से नहीं आता है, एक्चुअली वह हमारे आस-पास ही तैर रहा होता है। बस इसे कैप्चर करने की जरूरत होती है, ओपेन माइंड के साथ, ओपेन हार्ट के साथ। ऐज अ फिल्ममेकर तो मैं बिलीव करता हूं कि बस कुछ नया देखने, सोचने और आइडियाज जेनरेट करने की जरूरत होती है और वो आइडियाज भी हमारे बीच ही छिपे होते हैं।

एक बात जिसे मैं फॉलो करता हूं और चाहता हूं कि सभी फिल्ममेकर्स भी इस फ्रेज पर गौर करें, वो है 'इनहेल लाइफ एंड एक्जहेल सिनेमा' यानि जिंदगी को सांस के साथ अंदर लो और सिनेमा को सांस के जरिए छोड़ो, तभी आप कुछ कर पाएंगे। ऐसा नहीं है कि जब हम कुछ डिफरेंट करने की सोचते हैं तो सिर्फ उस एक आइडिया के बेसिस पर सक्सेसफुल हो जाएंगे। इसके कई प्रॉस एंड कॉन्स होते हैं। कई लोग हमारा सपोर्ट करते हैं तो कुछ अगेंस्ट भी खड़े नजर आ जाएंगे। लेकिन अगर मैं बतौर फिल्ममेकर काम करूं तो जो आपके दिल को भाए, जो आपको सही लगे आपको वो काम करना चाहिए। हिंदुस्तान बहुत बड़ा है, यहां हर प्रदेश में अलग-अलग तरह के, अलग-अलग तबके के लोग रहते हैं जो अलग तरह से सोचते हैं। तो आप सबके बारे में सोचकर आगे नहीं बढ़ सकते हैं। कहीं न कहीं आगे जाकर आपको सेल्फिश होना ही पड़ता है और होना ही पड़ेगा।

जब मैं फिल्म बनाता हूं तो बस वही करता हूं जो मुझे एक्साइट करता है, जो मुझे अच्छा लगता है और जो मेरे दिल को छूता है। मेरे फिल्म बनाने के यही तीन क्राइटेरिया हैं। यही चीजें काम आती हैं क्योंकि बाकी चीजें हमारे हाथों में नहीं होतीं। मुझे लगता है कि अगर हम कोई काम दिल से करते हैं तो वो दूसरों के दिल को भी जरूर छुएगा। उसमें सक्सेस निश्चित होती ही है। अगर मैं ये सोचकर फिल्म बनाऊंगा कि ये किसी को पसंद आएगी या नहीं, कमर्शियली हिट होगी या नहीं, कितनी कमाई होगी, तो मैं दिल से काम नहीं कर पाऊंगा और अगर मैं दिल से काम नहीं करूंगा तो जो मैं लोगों तक पहुंचाना चाहता हूं वो नहीं पहुंचा पाऊंगा।

मैं तो उन चीजों को पिक करता हूं जो मेरे लिए चैलेंजिंग हों। चैलेंजिंग कंटेंट भी हमारे आस-पास ही होता है। मैं पेपर पढ़ता हूं, घूमता हूं और बहुत ट्रैवल करता हूं, बहुत सी चीजें अपने आस-पास देखता हूं और ऐज अ फिल्ममेकर जब मुझे लगता है कि इसे कहानी के रूप में कहना मुश्किल होगा, तो मैं वहीं करने की कोशिश करूंगा। जिस काम को करने में मुझे डर लगे तो मैं उसे ही करना चाहता हूं। अगर किसी चीज को देखकर लगता है कि मैं इसे कर सकता हूं तो वो चीज मुझे आकर्षित नहीं करती है। यही वजह है कि आपको मेरे काम में बहुत से वेरिएशंस देखने को मिलेंगे। एक तरफ गैंगस्टर जैसी फिल्म बनाई, तो दूसरी तरफ मर्डर, फिर बर्फी भी बनाई। कोई अगर कहे कि मैं अपने काम को कैसे कैटेगराइज करता हूं तो मेरे पास कोई जवाब ही नहीं है।

मैं तो चैलेंज एक्सेप्ट करता हूं। अपने काम को दूसरे से अलग रखना चाहता हूं। मैं तो अभी भी अपनी आवाज को ढूंढ़ रहा हूं। मुझे खुद नहीं पता कि मेरी आवाज क्या है। मेरी हर फिल्म, मेरा हर काम एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है। मैं खुद को ढूंढ़ रहा हूं कि भइया मैं कौन हूं, लेकिन अभी तक ढूंढ़ ही नहीं पाया हूं। जैसे अगर आप करन जौहर, संजय लीला भंसाली, तिग्मांशू धूलिया की फिल्म देखने जाते हैं तो आपको पता होता है कि उसकी बेसलाइन कैसी होगी। मेरे साथ ऐसा नहीं है। मैं जब भी अपनी कोई फिल्म बनाता हूं तो मुझे डर होता है कि कहीं ये फ्लॉप न हो जाए, हर काम एक रिस्क होता है लेकिन वही मेरे लिए चैलेंजिंग है और वही मैं करना भी चाहता हूं।

अनुराग बसु
छत्तीसगढ़ में जन्मे अनुराग के पास फिजिक्स ऑनर्स में बीएससी की डिग्री है। टीवी शो तारा में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर करियर की शुरुआत करने वाले अनुराग बॉलीवुड के नोटेड फिल्ममेकर हैं। उन्होंने मर्डर, गैंगस्टर और बर्फी जैसी फिल्में डायरेक्ट की हैं।

In conversation with Kratika Agrawal
kratika.agrawal@inext.co.in

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