JAMSHEDPUR: बिष्टुपुर स्थित जमशेदपुर वीमेंस कॉलेज के अंग्रेजी विभाग की ओर से आयोजित दो दिवसीय ऑनलाइन सेमिनार का उद्घाटन राज्यपाल सह झारखंड की कुलाधिपति द्रौपदी मुर्मू ने सोमवार को किया। स्कोप एंड प्रॉस्पेक्ट ऑफ ट्रांसलेशन ऑफ ट्राइबल लैंग्वेज एंड लिटरेचर इन रिसर्च विषय अपनी बातों को रखते हुए मुख्य अतिथि राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने कहा कि लगभग पूरी दुनिया नोवेल कोरोना वायरस से ग्रस्त है। विशेषकर, ऐसे समय जहां देश में नई शिक्षा नीति लाई गई है। इसके अन्तर्गत ज्ञान आधारित इस युग में मातृभाषा को अहम स्थान दिया गया है। ऐसे में हम कह सकते हैं कि जनजातीय तथा क्षेत्रीय भाषा में निहित ज्ञान-परंपरा से अन्य भाषा-साहित्य के बीच संवाद आवश्यक है तभी हम एक-दूसरे की संस्कृति और संवेदना को समझ सकेंगे।

संवाद से विवाद समाप्त होते हैं

द्रौपदी मुर्मू ने कहा कि संवाद से विवाद समाप्त होते हैं। प्रेम और मेलजोल बढ़ता है। यह भाईचारा व मेलजोल हमें मजबूत करता है तथा हमारे समाज, राज्य और राष्ट्र को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सशक्त बनाता है। जनजातीय भाषा, संस्कृति व ज्ञान के साहित्य को ¨हदी, अंग्रेजी व अन्य भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवादित करके सामने लाने की जरूरत है। इससे न केवल जनजातीय समाज को मुख्यधारा में लाना सहज होगा, बल्कि जो मुख्यधारा का समाज है, वह भी जनजातीय संस्कृति और ज्ञान की परंपरा से बहुत कुछ सीखकर एक बेहतर समावेशी मानव-समाज की ओर अग्रसर होगा। भाषा और लिपि की बात करें तो कोल्हान के क्षेत्र में ओत गुरु लाको बोदरा ने हो भाषा की अपनी लिपि वारांगचिति का निर्माण किया था। हो भाषा व साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए एक ¨प्रटिग प्रेस भी लगाई थी, जिसका नाम था- एटे: तुरतुंग पीटिका आदिवासी जागरण का उनका यह प्रयास ऐतिहासिक था। इसी तरह संताली भाषा व साहित्य को पंडित रघुनाथ मुर्मू के भागीरथ प्रयासों को पूरा सम्मान देते हुए आगे ले जाना चाहिए। ओलचिकि लिपि का निर्माण करके उन्होंने संताली भाषा व साहित्य को संजीवनी प्रदान किया था।

संस्कार व चरित्र निर्माण भी

राज्यपाल ने कहा कि संगोष्ठी केवल बौद्धिक बहस का ही स्थान नहीं होती बल्कि संस्कार व चरित्र निर्माण के लिए भी प्रेरणादायक होती है। संगोष्ठियों को उत्सवधर्मी नहीं बल्कि रचनाधर्मी होना चाहिए। क्षेत्रीय भाषा कुड़माली झारखंड, बंगाल, बिहार आदि राज्यों में लोकप्रिय भाषा है। किसानी श्रम-संस्कृति की ताजगी इस भाषा की सभी अभिव्यक्तियों में है। साहित्य, संगीत, कला, नृत्य आदि में कुड़माली भाषा मजबूत प्रभाव रखती है। राम और कृष्ण काव्य की परंपरा भी कुड़माली में है। यह तथ्य इस भाषा को अन्य भारतीय भाषाओं के साथ जोड़ता है। इसके पहले सेमिनार की मुख्य आयोजक सह प्राचार्या प्रोफेसर डॉ शुक्ला माहांती ने राज्यपाल व वक्ताओं का स्वागत किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ नुपुर पालित तथा डॉ मनीषा टाईटस ने किया।

भाषा की विजिबिलिटी बढ़ाने अनुवाद जरूरी

ऑनलाइन सेमिनार के बीज वक्ता सीआईएल, मैसूर के पूर्व निदेशक व शिलांग विश्वविद्यालय के अंग्रेजी प्रोफेसर डॉ एके मिश्रा ने कहा कि आदिवासी भाषा तभी विकसित होगी जब उसकी विजिबिलिटी बढ़े। विजिबिलिटी तभी बढ़ेगी जब उसका अनुवाद हो। इसलिए आदिवासी भाषा व साहित्य के अनुवाद को भाषा, शिक्षण, संस्कृति, साहित्य आदि के बराबर ही महत्व देते हुए काम करना चाहिए। टेक्स्ट बुक में सिर्फ भाषा ही जनजातीय न रहे, बल्कि उसका कंटेंट भी जनजातीय जीवन से जुड़ा हो। उन्होंने कहा कि अनुवाद में गंभीरता से काम करें और जिस तरह से संताली, खासी, बोडो और मीजो भाषा के लोगों ने कम समय में अपने भाषा व साहित्य को समृद्ध किया, उसी तरह दूसरी जनजातीय भाषाओं को भी काम करना होगा। शब्दावलियों को बढ़ावा देना होगा। साहित्य के अलावा विज्ञान के विषयों को भी अनुवाद के जरिए सामने लाने का प्रयास किया जाना चाहिए।