रांची (ब्यूरो) । सोलह श्रृंगार से युक्त 20वीं सदी के आरंभिक दशक में प्रकृति की गोद में बसने वाला झारखंड रा'य निर्माण आंदोलन का बीजारोपण छोटानागपुर उन्नति समाज, छोटानागपुर- संथाल परगना आदिवासी सभा (आदिवासी महासभा), झारखण्ड पार्टी आदि के नेतृत्व में हुआ। 1963 से 1973 तक का समय झारखंड आंदोलन के बिखराव एवं ठहराव का दौर था। 20वीं सदी के अंतिम चतुर्थांश में झारखंड मुक्ती मोर्चा ने नियमित आंदोलन किया और 15 नवंबर, 2000 ई। को झारखंड का अटल स्वरूप भारत संघ के 28 वें रा'य के रूप में, अस्तित्व में आया। 22 वर्षों में झार(वन) व खण्ड (प्रदेश) अर्थात वनों का प्रदेश झारखण्ड सभी प्राणी जगत के लिये उपवन के समान सौलह संस्कारों युक्त हो कर प्रगती के पथ पर रघुवर के कुशल नेतृत्व में बढ़ी और अब पूरे हिम्मत के साथ हेमंत के वर्तमान नेतृत्व में बढ रही है। किसी भी रा'य के विकास का मापदंड उस राज्य की जनभागीदारी पर निर्भर करती है और शक्ति जनशक्ति में निहित होती है। सत्ता को जब जनता का साथ मिलता है तब स्वयं जनार्दन भी कार्य की सफलता हेतु सहयोग करते हैं।
राज्य ने बहुत कुछ खोया
वर्तमान परिपेक्ष्य में ही नहीं बल्कि पौराणिक काल से ही सबसे बड़ी दिव्य शक्ति- ईमानदारी, सत्यता ही रही हैं जो अभी भी है। विगत 21 वर्षों में झारखंड राज्य को प्राप्त बहुत कुछ हुआ परंतु राज्य ने बहुत कुछ खोया भी है जो जीवंत रा'य का परिचायक है। देर से ही सही झारखण्ड विजयश्री की ओर साक्षात् हेमंत सोरेन के नेतृत्व में बढ चुकी है। क्योंकी,
सत्य सदा विजयी
शिक्षा,स्वास्थ्य, संस्कृति, कला, साहित्य, उद्योग इत्यादी क्षेत्रों में राज्य को एक स्थान प्राप्त था ही लेकिन अब इन सभी क्षेत्रों में अव्वल दर्जे की प्राप्ति हेतु राज्य बढ़ गया है। हाँ, यह जरूर है कि राज्य के विकास की गति धीमी है। संस्कृत सुभाषित में कहा गया है। शनै: पन्था: शनै: कन्था शनै: पर्वत मस्तके।
शनैर्विद्या शनैर्वित्तं पञ्चैतानी शनै: शनै:। अर्थात, आहिस्ता आहिस्ता (धैर्य से) रास्ता काटना, आहिस्ता चद्दर सीना (या वैराग्य लेना), आहिस्ता पर्वत सर करना, आहिस्ता विद्या प्राप्त करना और पैसे भी आहिस्ता आहिस्ता कमाना चाहिये। झारखंड राज्य भी विकास के मार्ग को धीरे-धीरे प्रशस्त कर रहा है। विकास में बाधक मतभेद, उबड़-खाबड, गड्ढे को समतल करते हुये, सर्वशिक्षा का दीप धीरे-धीरे प्रज्वलित करते हुए, आर्थिक क्षेत्र में भी धीरे-धीरे अपनी साख राष्ट्रीय पटल पर अंकित कर रहा है।
मूल्यों पर टिकी होती है
किसी राज्य की शिक्षा व्यवस्था वहां के विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों व अन्य शैक्षणिक संस्थानों के भवनों पर नहीं बल्कि वहां पर पठन-पाठन करने व करवाने अर्थात शिक्षक-छात्र-कर्मचारी-प्रबंधन के नैतिक मूल्यों पर टिकी होती है। चाणक्य ने ठीक ही कहा है,
यदि किसी रा'य में एक व्यक्ति में भी राष्ट्र भाव न हो तो समझिये उस रा'य का शिक्षक व शिक्षा तंत्र असफल है।
राष्ट्रभाव अर्थात ऐसा भाव जिसमें चारित्रिक, आर्थिक, व्यवहारिक पारदर्शिता हो.शैक्षणिक संस्थान का महत्व देवालय से भी अधिक होता है। शिक्षा अर्थात नामांकन,पंजीयन, परीक्षा व परिणाम नहीं बल्कि यह एक व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया है। जबतक शिक्षक छात्र से, छात्र का शिक्षक से शैक्षणिक वार्तालाप, आपसी अभिदर्शन नहीं होगा तब तक इ'िछत परिणाम की प्राप्ति संभव नहीं है।
प्रबंधन का कार्य प्रशंसनीय
परंतु शिक्षा के क्षेत्र में झारखंड राज्य के विद्यालयों मैं कार्यरत शिक्षक, प्राचार्य, कर्मचारी व प्रबंधन का कार्य प्रशंसनीय है। राज्य के शिक्षक यदि शहर में पदस्थापित हैं तो नि:संदेह अपने कर्तव्य का अक्षरश: पालन कर रहे हैं अपितु सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों मैं पदस्थापित शिक्षक भी कर्त्तव्य निर्वहन में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैंं। परिणामस्वरूप झारखंड वासियों में शिक्षा प्राप्ति की ओर रूझान बढ़ा है। आवश्यकता मात्र यह है कि शिक्षा विभाग शिक्षकों के उत्साहवर्धन हेतु औचक निरीक्षण करें यदि कुछ कमियां भी नजर आये तो सुधारात्मक दृष्टिकोण से अवसर प्रदान करें। चूंकि शिक्षक का मर्म बहुत ही संवेदनशील होता हैंं इसलिये उनपर कठोर कार्रवाई न ही किया जाये बल्कि उन्हें अपने कर्तव्य की अनुभूति बारम्बार करवायी जाये। साथ ही शिक्षक भी स्वभाव से शिक्षक बनें रहे।