रांची(ब्यूरो)। शुक्रवार को अलविदा जुमे की नमाज अदा की जाएगी। दो साल तक कोरोना संक्रमण के कारण रोजेदारों ने घर पर ही नमाज अदा की। इस बार मस्जिदों में बा-जमात नमाज होगी, जिसमें लाखों लोग शामिल होंगे। सिटी की कुछ ऐतिहासिक मस्जिदों के अलावा करीब 150 मस्जिदों, मरकजों मेंं नमाज होगी। दिन के साढ़े बारह बजे से लेकर 2 बजे तक अलग-अलग स्थानों पर नमाज अदा की जाएगी। रमजान के महीने का आखिरी जुमा मुसलमानों में काफी अहमियत रखता है। हर बीतते रमजान के साथ रोजेदारों में इस बात की मायूसी छा जाती है कि यह बरकत और रहमत वाला महीना जुदा हो रहा है। अलविदा जुमे की नमाज के बाद लोग रो-रो कर खुदा से दुआएं मांगते हैं। रांची में ऐसी कई मस्जिदें हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्व है। प्रस्तुत है रांची में मौजूद ऐतिहासिक मस्जिदों का महत्व और उनकी तामीर का इतिहास:

सबसे पहले तामीर हुई थी हांडा मस्जिद

अपर बाजार में मौजूद हांडा मस्जिद 1852 ई में बनी थी। यह रांची की पहली मस्जिद कही जाती है। सिटी में इससे पहले कोई मस्जिद नहीं थी। आज शहर और आसपास करीब 200 मस्जिदें हैं। रांची की सबसे पहली मस्जिद हांडा मस्जिद को मीर नादिर अली ने बनवाया था। मस्जिद के बाहर ही दो छोटी मीनारें हैं, जिनमें नक्काशी की हुई है। वहीं इस मस्जिद के ऊपर तीन हंडे हैं, जिसके कारण इसका नाम हांडा मस्जिद पड़ा। पहले अपर बाजार में अच्छी खासी संख्या में मुसलमान रहते थे। लेकिन, कालांतर में यहां से चले गए, जिसके बाद यहां नमाजी कम हो गए। अब जुमे की नमाज में यहां ज्यादा भीड़ होती है। महावीर चौक के एक तरफ मस्जिद है, तो दूसरी मंदिर। इस मस्जिद में जब जुमे की नमाज होती है, तो आसपास के मार्केट में भी नमाजियों को जगह दी जाती है।

डोरंडा की सबसे पुरानी है जामा मस्जिद

पहले रांची और डोरंडा इलाके अलग-अलग हुआ करते थे। डोरंडा बाद में रांची के ही अंदर आया। यहां की सबसे पुरानी मस्जिद 251 साल पुरानी है। इसका नाम डोरंडा जामा मस्जिद है। इसकी तामीर कुतुबुद्दीन अहमद उर्फ रिसालदार बाबा ने की थी। वे अंग्रेजी हुकूमत में मद्रास रेजिमेंट में एक रिसाले यानी फौजी टुकड़ी में कार्यरत जवान थे। वे ढाई सौ साल पहले रांची आए थे। उनकी फौज में अच्छी खासी संख्या में मुसलमान थे। उनकी मौत के बाद मजार भी डोरंडा में बनी, जिसमें हर साल उर्स भी लगता है। उनकी मजार से करीब 400 मीटर की दूरी पर मौजूद है जामा मस्जिद। आज भी इसे डोरंडा जामा मस्जिद के नाम से जाना जाता है, जिसमें हर जुमे को खूब भीड़ होती है। मस्जिद में कुल छह मेहराब हैं, जिनकी डिजाइन मुगल काल से मेल खाती है।

मौलाना आजाद भी दे चुके हैैं तकरीर

रांची में जब एक मात्र मस्जिद हांडा मस्जिद थी, तब नमाजियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए 1867 में अपर बाजार में ही जामा मस्जिद की तामीर की गई थी। आजादी की लड़ाई लड़ते हुए मौलाना अबुल कलाम आजाद को रांची में नजरबंद किया गया था। 30 मार्च 1916 से 31 दिसंबर 1919 तक वे रांची में रहे। इस दौरान जुमे की नमाज से पहले मौलाना आजाद जामा मस्जिद से ही तकरीर देते थे। तब हिन्दू-मुसलमान सभी मिलकर मस्जिद में उनके भाषण को सुनते थे। इस मस्जिद में दूसरे धर्म के लोगों का आना इतना च्यादा हुआ करता था कि उनके लिए अलग से जगह भी बनाई गई थी। इसी मस्जिद से मौलाना आजाद ने रांची में हिन्दू-मुस्लिम एकता की नींव मजबूत की थी। इसके बाद 1976 में इस मस्जिद की नए सिरे से तामीर की गई।