RANCHI:आज अलविदा जुमा है। रमजान के महीने का आखिरी जुमा। मुस्लिम धर्मावलंबियों में इस जुमे की खास अहमियत है, क्योंकि यह आखिरी अशरे में पड़ता है, जो जहन्नम की आग से खुद को बचाने के लिए तौबा करने का होता है। यही वजह है कि आखिरी जुमे या अलविदा जुमे के दिन नमाज के बाद दुआओं में लोग फूट-फूट कर रो पड़ते हैं। रांची की कुछ ऐतिहासिक मस्जिदें ऐसी हैं, जहां मौलाना अबुल कलाम आजाद भी तकरीर दे चुके हैं। तब मस्जिद के बाहर और भीतर गैर मुस्लिम भी मौजूद होते थे, जो मौलाना आजाद की तकरीर सुनकर महात्मा गांधी की सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलने के फलसफे को सुनकर उसपर अमल भी करते थे। यहां जानिये रांची में मौजूद ऐतिहासिक मस्जिदों का महत्व और उनकी तामीर का इतिहास:

168 साल पुरानी है हांडा मस्जिद--फोटो

अपर बाजार में मौजूद हांडा मस्जिद 1852 ई में बनी थी। यह रांची की पहली मस्जिद कही जाती है। सिटी में इससे पहले कोई मस्जिद नहीं थी। आज शहर और आसपास करीब 200 मस्जिदें हैं। रांची की सबसे पहली मस्जिद हांडा मस्जिद को मीर नादिर अली ने बनवाया था। मस्जिद के बाहर ही दो छोटी मीनारें हैं, जिनमें नक्काशी की हुई है। वहीं इस मस्जिद के ऊपर तीन हंडे हैं, जिसके कारण इसका नाम हांडा मस्जिद पड़ा। इस मस्जिद की पहली मंजिल पर एक लाइब्रेरी हुआ करती थी। इसे सिटी की सबसे पुरानी लाइब्रेरी माना जाता है। पहले अपर बाजार में अच्छी खासी संख्या में मुसलमान रहते थे। लेकिन, कालांतर में यहां से चले गए, जिसके बाद यहां नमाजी कम हो गए। अब जुमे की नमाज में यहां ज्यादा भीड़ होती है। आलम यह है कि महावीर चौक के एक तरफ मस्जिद है, तो दूसरी मंदिर। इस मस्जिद में जब जुमे की नमाज होती है, तो आसपास के मार्केट में भी नमाजियों को जगह दी जाती है। यह साम्प्रदायिक सौहा‌र्द्र की अनूठी मिसाल भी है।

डोरंडा की पहली मस्जिद है 251 साल पुरानी-फोटो डोरंडा जामा मस्जिद

पहले रांची और डोरंडा इलाके अलग-अलग हुआ करते थे। डोरंडा बाद में रांची के अंदर आया। यहां की सबसे पुरानी मस्जिद 251 साल पुरानी है। इसका नाम डोरंडा जामा मस्जिद है। इसकी तामीर कुतुबुद्दीन अहमद उर्फ रिसालदार बाबा ने की थी। वे अंग्रेजी हुकूमत में मद्रास रेजिमेंट में एक रिसाले यानी फौजी टुकड़ी में कार्यरत जवान थे। वे ढाई सौ साल पहले रांची आए थे। उनकी फौज में अच्छी खासी संख्या में मुसलमान थे। उनकी मौत के बाद मजार भी डोरंडा में बनी, जिसमें हर साल उर्स भी लगता है। उनकी मजार से करीब 400 मीटर की दूरी पर मौजूद है जामा मस्जिद। रिसालदार बाबा एक फूस की झोपड़ी बनाकर वहां रहते थे। बाद में इसे मस्जिद के रूप में तैयार कर दिया गया, जहां नमाज अदा की जाती थी। आज भी इसे डोरंडा जामा मस्जिद के नाम से जाना जाता है, जिसमें हर जुमे को खूब भीड़ होती है। मस्जिद में कुल छह मेहराब हैं, जिनकी डिजाइन मुगल काल से मेल खाती है। इसके अलावा अजान देने के लिए एक ऊंची मिनार भी है।

मौलाना आजाद देते थे जामा मस्जिद में तकरीर--फोटो अपर बाजार जामा मस्जिद

रांची में जब एक मात्र मस्जिद हांडा मस्जिद थी, तब नमाजियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए 1867 में अपर बाजार में ही जामा मस्जिद की तामीर की गई थी। आजादी की लड़ाई लड़ते हुए मौलाना अबुल कलाम आजाद को रांची में नजरबंद किया गया था। 30 मार्च 1916 से 31 दिसंबर 1919 तक वे रांची में रहे। इस दौरान जुमे की नमाज से पहले मौलाना आजाद जामा मस्जिद से ही तकरीर देते थे। तब हिन्दू-मुसलमान सभी मिलकर मस्जिद में उनके भाषण को सुनते थे। इस मस्जिद में दूसरे धर्म के लोगों का आना इतना ज्यादा हुआ करता था कि उनके लिए अलग से जगह भी बनाई गई थी। इसी मस्जिद से मौलाना आजाद ने रांची में हिन्दू-मस्लिम एकता की नींव मजबूत की थी। इसके बाद 1976 में इस मस्जिद की नए सिरे से तामीर की गई। यहां पांच वक्ती नमाजियों की संख्या अभी काफी कम होती है, लेकिन जुमे की नमाज में इस मस्जिद में बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं। भीड़ इतनी होती है कि लोगों को सड़क पर ही नमाज पढ़ना पड़ता है।

रांची में जितनी मस्जिदें मौजूद हैं, उनमें से कई का इतिहास के पन्नों पर दर्ज हैं। अपर बाजार की जामा मस्जिद जहां स्वतंत्रता संग्राम की गवाह है, वहीं डोरंडा की जामा मस्जिद एक आला हस्ती की बुजुर्गी बयान करती है। इसी प्रकार रांची की पहली मस्जिद हांडा मस्जिद का अब तक खड़ा होना भी अपने आप में बड़ा अचीवमेंट है।

-डॉ मो जाकिर, शिक्षाविद एवं इतिहासकार