लखनऊ (जेएनएन)। हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय/मैं शंकर का वह क्रोधानल, कर सकता जगती क्षार-क्षार/मैं डमरू की ही प्रलयध्वनि जिसमें नचता भीषण संहार/रणचंडी की अतृप्त प्यास मैं दुर्गा का उन्मत हास राजेंद्र नगर में राष्ट्रधर्म पत्रिका का छोटा सा कार्यालय आज भी अटल की प्रेरणा से चल रहा है। 31 अगस्त, 1947 को पहले अंक में अटल की यह कविता प्रकाशित हुई थी और तब से राष्ट्रधर्म का सफर ऐसे ही चल रहा है। आज भले ही अटल नहीं रहे लेकिन उनकी यादें हमेशा इस कार्यालय में बनी रहेंगी। वैसे तो लखनऊ में हर तरफ अटल हैं लेकिन राष्ट्रधर्म पत्रिका के इस कार्यालय से उनका भावनात्मक जुड़ाव रहा। इसलिए नहीं कि वह इसके पहले संपादक थे बल्कि हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में वह जो करना चाहते थे उसे करने का मौका इस पत्रिका ने दिया।

अन्य अखबारों और पत्रिकाओं से जुड़े

हालांकि आगे चलकर वह अन्य अखबारों और पत्रिकाओं से जुड़े लेकिन आगाज यहीं से किया। 1947 को जब राष्ट्रधर्म को शुरू करने के लिए तत्कालीन प्रांत प्रचारक भाऊराव और सहप्रांत प्रचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने संपादक के रूप में कई नामों पर विचार किया लेकिन हर बार बात अटल पर थम गयी। दोनों लोग इस बात से सहमत थे कि पत्रिका के लिए अटल से बेहतर संपादक नहीं हो सकता। राष्ट्रधर्म को चलाने में अटल को कम मशक्कत नहीं करनी पड़ी। उन दिनों लेटर प्रेस होने के कारण कंपोजिंग आज जैसी नहीं थी। मैटर देने के बाद पता चलता कि कुछ लाइनें रह गयीं। कंपोजीटर दौड़कर आता कि कुछ लाइनें इसमें दे दीजिए।

संपादकीय नहीं लिखा तो अखबार कैसे निकलेगा

गीत हो या कविता अटल तत्काल वहीं बोलकर उसे पूरा करा देते। इसी कारण अटल खाना खाने तक नहीं जाते थे। भाऊराव उनकी आदत को जानते थे इसलिए अक्सर अटल से खाने के लिए पूछते रहते। अटल उनको हंसकर जवाब देते कि अगर मैं खाना खाने गया तो संपादकीय कौन लिखेगा और अगर संपादकीय नहीं लिखा तो फिर अखबार कैसे निकलेगा। जवाब सुनकर भाऊराव भी घंटों बैठे रहते। राष्ट्रधर्म के कारवां में अब तक कई सारथी रहे। अटल के अलावा वचनेश त्रिपाठी, भानु प्रताप शुक्ल, रामशंकर अग्निहोत्री, वीरेश्वर द्विवेदी, रामदत्त मिश्र और आनंद मिश्र जैसे अनुभवी लेखक और विचारक योगदान देते रहे। मौजूदा समय में प्रो. ओम प्रकाश पांडेय इसका संपादन कर रहे हैं।

हॉकर भी बने अटल

राष्ट्रधर्म का संपादकीय लिखने से लेकर सुबह अखबार बांटने का काम भी अटल ने किया। कंपोजिंग और मशीन चलाने के बाद साइकिल पर गट्ठर बांधकर लोगों के घरों तक पहुंचाते थे।

चप्पल के नाम पर लिए पांच रुपये

आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि एक बार अटल ने कार्यालय प्रमुख जगदंबा प्रसाद वर्मा जिनको आदर से सब दादा कहते थे, उनसे पांच रुपये मांगे। दादा ने पूछा क्या करोगे? अटल ने कहा देख नहीं रहे चप्पल टूटी पड़ी है एक महीने से। दादा ने बेमन से पांच रुपये अटल को दिए। अटल ने वचनेश से कहा चलो जरा। वचनेश ने कहा किधर। अटल ने कहा अरे चलो तो। बाहर निकलकर दोनों ने भुट्टे खाए और लस्सी पी। वचनेश ने कहा कि चप्पल का क्या होगा। अटल ने हंसते हुए कहा कि अरे इतने दिनों से काम चला रहे थे, कुछ दिन और चला लेंगे।

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