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PRAYAGRAJ : प्रयागराज में करीब आधा दर्जन वे फौजी रहते हैं, जो कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय फौज का हिस्सा थे। एक परिवार ऐसा भी है, जिसके दो सदस्यों (पिता-पुत्र) ने हिस्सा लिया। पिता का नाम पीएन ओझा और बेटे का नाम है जितेंद्र कुमार ओझा। पीएन ओझा की एक और खास बात यह है कि उन्होंने अपने चारों बेटों को फ़ौज में भेज दिया है। तीन बेटे रमेश कुमार ओझा फिलहाल पूना में पोस्टेड हैं। सनी देओल ओझा फौज के सीक्रेट मिशन पर हैं।

टेलीविजन पर देखा ता कचोटने लगा मन

पीएन ओझा बताते हैं कि आपरेशन विजय लांच हो जाने के समय बेटा जितेंद्र इंजीनयिरिंग रेजीमेंट में पहले से ही कारगिल में मौजूद था। वह छुट्टी पर घर आए हुए थे। उनकी रेजीमेंट नरीनगर में थी। टेलीविजन पर युद्ध शुरू हो जाने का पता चला तो छुट्टी के दिन बीतने मुनकिल होने लगे। जैसे तैसे दस दिन कटे और मैं अपने रेजीमेंट नरीनगर पहुंच गया। नरी ओझा का कहश था कि रेजीमेंट पहुंचने पर पता चला कि कंपनी मूव कर चुकी है। अब केवल रीयर टीम (आगे चलने वाली टीम को बैकअॅप देने वाली टीम) ही कैंप में मौजूद है। मन कचोटने लगा कैसे उस प्वाइंट तक पहुंचश होगा जहां शत्रु सीधे सामने हो। संयोग से दूसरे ही दिन यह मौका मिल गया। कंपनी को पांच ट्रक सामान लेकर जाश था। रात में लाइट बंद करके चलती थी ट्रकनरी ओझा कभी न भूलने वाले मोमेंट का याद करते हुए बताते हैं कि सबसे टफ चैलेंज था रात में ट्रक लेकर नकिलश वह भी हेड लाइट ऑफ करके। ऐसा क्यों? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि शत्रु हाइट पर था। लाइट की रोशनी दिखते ही वह फायरिंग शुरू कर देता था। इस स्थिति में ट्रक के साथ मूव कर रहे जवाशें की जान खतरे में होती थी। इसलिए लाइटें बंद करके ही मूव करने के इंस्ट्रक्शन मिले थे।

पहली बार देखी पाइप माइन

नरी ओझा बताते हैं कि आपरेशन विजय के दौरान ही हमें पहली बार पाइप माइन की जानकारी हुई। वह बताते हैं कि करीब दो इंच की जीआई पाइप के भीतर शत्रुओं ने माइन फिट कर दी थी। इसे जहां उन्होंने अपना कैंप बना रखा था उसके आसपास फेंक दिया था। इस तरह की माइंस के बारे में कभी सुना नहीं था। इस माइंस से सेना को नुकसान होने लगा तो नया टॉस्क सेट किया गया। इन माइंस को डिटेक्ट करने का। नरी ओझा बताते हैं कि ऐसी ही एक माइन लेकर वह अपने जेसीओ नायक सूबेदार महबूब खान के पास पहुंच गये। इसे देखकर वह अचंभित थे। इसे उलट-पलटकर वह इसका मॉडयूल समझने की कोशिश कर रहे थे। वह ब्लास्ट हो गयी। महबूब खान जख्मी हो गये। संयोग से आज भी वह जिंदा हैं और गुड़गांव में रहते हैं।

रातोंरात बनती थीं सड़कें

नरी ओझा बताते हैं कि गिलगिट पहाड़ी पर चढ ̧ने के लिए पगडंडी ही थी। आपरेशन विजय शुरू होने के बाद इन पगडंडियों को इतनी चौड़ी सड़क में कन्वर्ट करने का टॉस्क मिला जिस पर सेना के ट्रक आ जा सकें। दिन में यह काम संभव नहीं था। उड़ा दिये जाने का खतरा था। रात में ही यह काम भी होता था।

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चरवाहों से मिली थी पहली सूचना

आपरेशन विजय के दौरान कारगिल में ही पोस्ट रहे सूबेदार नयाम सुंदर पटेल बताते हैं कि गिलगिट पहाड़ी की चोटी तक भारत की तरफ से जाने वाला रास्ता बिल्कुल खड़ा है और पाकिस्तान की तरफ से जाने वाला रास्ता चढ़ाई के लिए अनुकूल है। यहां साल के कुछ ही महीने ऐसे होते थे जब यह बर्फ से ढका हुआ न रहता हो। इस वक्त सेना का मूवमेंट भी इस एरिया में कम होता था। दोनों तरफ के चरवाहे जानवर लेकर चराने के लिए जाते थे। नरी पटेल बताते हैं कि पहली बार चरवाहों से ही सूचना मिली थी कि चोटी पर कुछ लोगों का जमावड़ा हो गया है और उनकी गतिविधियां संदिग्ध हैं। इस सूचना के बाद सेना की टीम रेकी के लिए लगायी गयी। रेकी के बाद रिपोर्ट तैयार हुई तो सन्नाटा खिंच गया। हमारे एरिया में कब्जा हो चुका था।

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