रघुराम राजन समिति ने विकास के जो 10 पैमाने लिए हैं- वे दुनिया भर में अब स्वीकार्य हो गए हैं. सभी जगह यह माना जाता है कि अच्छा होगा कि हम इन्हें लेकर चलें.

इन पैमानों पर बहस हो सकती है लेकिन इनके आधार पर परिणाम ठीक हैं.

हालांकि हम इसे वस्तुनिष्ठ होकर नहीं देख सकते. अगर हम मानें कि शिक्षा ज़्यादा ज़रूरी है, एससी-एसटी की स्थिति कम. अगर हम मानें कि स्वास्थ्य ज़्यादा ज़रूरी है, गरीबी कम- तो आंकड़े बदल जाएंगे.

वैसे तो शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे सभी पैमानों पर देश भर में स्थिति बेहतर हुई है लेकिन जो राज्य आगे हैं उनमें ज़्यादा विकास हुआ है और जो पिछड़े हैं उनमें कम.

इस तरह से देखा जाए तो अंतर बढ़ा है. यह अंतर इसलिए बढ़ा है क्योंकि संसाधनों का बंटवारा अब भी अमीर प्रांतों में ज़्यादा होता है और गरीब प्रांतों में कम.

गुजरात- कम विकसित

दूसरी बात यह है कि जो प्रशासन कितना अच्छा है इससे बहुत फ़र्क पड़ता है. जिन राज्यों में प्रशासन अच्छा है वहां विकास ज़्यादा हुआ है और जहां भ्रष्टाचार है या प्रशासन कमज़ोर है वहां विकास कम हुआ है.

राजन समितिः सही वक़्त नहीं,सही तस्वीर नहीं

गुजरात को कम विकसित राज्यों की श्रेणी में शामिल इसलिए किया गया है क्योंकि लगातार यह बात सामने आ रही है कि सामाजिक-आर्थिक पैमानों- जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला शिक्षा, अनुसूचित जाति-जनजाति की स्थिति को लेकर गुजरात बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है.

चूंकि यह सारे आधार राजन समिति के इंडेक्स में हैं इसलिए गुजरात को निचले दर्जे में रखा गया है.

यह भी कहा जाता है कि गुजरात मॉडल कॉर्पोरेट का पक्ष लेता है, गरीब का नहीं. चूंकि  मीडिया को भी कॉर्पोरेट सेक्टर ही नियंत्रित करता है इसलिए वह गुजरात  मॉडल की वाह-वाही कर रहा है.

विरोध

रिपोर्ट में विशेष राज्य का दर्जा ख़त्म करने की मांग इसलिए की गई है क्योंकि समिति का मानना है कि उसने दस पैमानों के आधार पर एक विकास का एक संपूर्ण ख़ाका खींच लिया है.

इसमें जो सबसे कम विकसित राज्य हैं वो पुराने ढंग से विशेष राज्य की स्थिति में आ जाएंगे.

समिति का कहना है कि जो कम विकसित राज्य हों उनको केंद्र से ज़्यादा पैसा मिले. जितना कम विकसित उतना ज़्यादा पैसा मिले.

जो राज्य तेजी से विकास करेगा उसे प्रोत्साहन देने के लिए और ज़्यादा पैसा दिया जाए ताकि पिछड़े राज्यों को अविकास के नाम पर पैसा लेने की आदत न पड़ जाए.

समिति के एक सदस्य शैवाल गुप्ता, जो  बिहार से हैं, ने असहमति का लंबा पत्र भी दिया है. 50 पेज की रिपोर्ट में 10 पेज असहमति का पत्र है.

उनका कहना है कि रिपोर्ट बहुत ज़्यादा व्यक्तिपरक है. उनका कहना है कि उपभोग के अंतर के बजाय आय के अंतर को इस्तेमाल किया जाना चाहिए था.

राजन समितिः सही वक़्त नहीं,सही तस्वीर नहीं

आय का अंतर उपभोग के अंतर से बहुत ज़्यादा होता है. इसलिए अगर आय को आधार बनाया जाए तो राज्यों की स्थिति हुत हद तक बदल सकती है.

वैसे ये रिपोर्ट अभी अंतिम नहीं है. इसे अध्ययन के लिए वित्त मंत्रालय को दिया गया है.

उसके अलावा जब राज्य इस रिपोर्ट का अध्ययन करेंगे तो कुछ और आपत्तियां आएंगी. क्योंकि जिन्हें कम मिलेगा वो ऐतराज़ करेंगे और जिन्हें ज़्यादा मिलेगा वो समर्थन करेंगे.

संवैधानिक नहीं है

इसमें कुछ भी नया या अनोखा नहीं है. पुराने आधार को नए आधार से बदलने के सुझाव दिए गए हैं.

इन्होंने जो बातें कही हैं वो वित्त आयोग की सिफ़ारिशों में आती रही हैं. चूंकि एक संवैधानिक संस्था, वित्त आयोग, अभी मौजूद है इसलिए ऐसी समिति बनाने का कोई मतलब नहीं था.

अगर वित्त मंत्रालय को ऐसी रिपोर्ट तैयार करवानी थी तो उसे वित्त आयोग की एक उप-समिति बनवाकर रिपोर्ट बनवानी चाहिए थी.

चूंकि वित्त आयोग में सभी राज्यों और केंद्र के प्रतिनिधि होते हैं इसलिए उसकी रिपोर्ट संघीय ढांचे के ज़्यादा अनुरूप होती.

ऐसा लगता है कि वित्त मंत्रालय इस रिपोर्ट के आधार पर अब वित्त आयोग पर इसी तरह की रिपोर्ट तैयार करने के लिए दबाव बनाएगा, जो सही नहीं होगा.

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