यह हार पचा पाना आसान नहीं होगा

उपचुनाव में करारी शिकस्त के बाद यह चर्चा तेज हो गयी कि मोदी लहर का असर इस बार नजर नहीं आया। साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोई चुनावी जनसभा न होना भी इसकी वजह बताया जा रहा है। सियासी जानकारों की मानें तो यह चुनाव भाजपा के सुशासन के दावों की परीक्षा था जिसमें वह फेल होती नजर आ रही है। विधानसभा चुनाव के बाद पंचायत चुनाव में भी जीत का परचम लहराने वाली भाजपा को यह हार पचा पाना आसान नहीं होगा, क्योंकि इसमें सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की प्रतिष्ठा जुड़ी थी।

मतदान का प्रतिशत गिरना भी भाजपा की हार

दोनों ने ही ताबड़तोड़ चुनावी सभाएं भी की, लेकिन जनता का भरोसा जीतने में नाकामयाब रहे। गुजरात के बाद पूर्वोत्तर के राज्यों में योगी की सभाओं को जीत की एक अहम वजह बताने वालों को भी भाजपा के गढ़ में मिली हार के सियासी मायने भी तलाशने की जरूरत आन पड़ी है। हार की अन्य वजहों को तलाशें तो यह भी सामने आता है कि सूबे में सरकार बनने के बाद पार्टी में आपसी गुटबाजी बढ़ी है। संगठन स्तर पर कामकाज भी उस दूरदर्शिता के साथ नहीं हो रहा है। जिसका नजारा वर्ष 2012 से 2017 के बीच देखने को मिला था। वहीं उपचुनाव में मतदान का प्रतिशत गिरना भी भाजपा की हार की बड़ी वजह है।

भाजपा इस झटके से कैसे उबर पाती

सूबे की जनता ने भाजपा को लोकसभा चुनाव में 73 सीटें और विधानसभा चुनाव में 325 सीटों तक तो पहुंचाया, लेकिन उपचुनाव में भाजपा के बड़े वोट बैंक ने मतदान केंद्रों से दूरी बनाए रखी। यही वजह रही कि सपा-बसपा का गठजोड़ प्रभावी साबित हुआ और जातीय राजनीति की चाशनी ने विपक्ष का मुंह मीठा करा दिया। यह उपचुनाव भाजपा के लिए चेतावनी बनकर आया है क्योंकि इस जीत ने आगामी लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की नींव का पत्थर रखने का काम किया है। अब देखना यह है कि भाजपा इस झटके से कैसे उबर पाती है।

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