दवाओं का वीआईपी जुगाड़
मेडिकल कॉलेज की ओपीडी में मरीजों को दवा लिखने की रस्म अदायगी के अलावा कुछ खास नहीं हो रहा है। उसके बाद मरीज को दवा मिले या न मिले अस्पताल प्रशासन को कोई मतलब नहीं। बेचारा मरीज इधर से उधर भटकता ही रहता है। ये दवाएं मरीजों की पहुंच से दूर ही रहती हैं। अगर कोई जुगाड़ है तो शायद मरीज का काम बन जाए, वरना भूल जाएं

नहीं मिलती प्रॉपर दवाएं
वेस्ट यूपी के इकलौते मेडिकल कॉलेज में हमेशा ही मरीजों का तांता लगा रहता है। ओपीडी में दवाएं लिखने के बाद डॉक्टर भी अपनी फर्ज अदायगी पूरी कर देते हैं। जंग तो इसके बाद शुरू होती है। मरीज और उसके के तीमारदार घंटों में डिस्पेंसरी की लंबी लाइन में लगकर दवाएं लेते हैं। जिनमें से काउंटर पर कुछ पर क्रॉस कर और कुछ दवाएं थमाकर मरीज और तीमारदार को टरका दिया जाता है। कारण पूछने पर जवाब मिलता है कि दवा है ही नहीं बाहर से खरीद लें।

महंगी दवाओं पर अधिक
इस तरह की ना अधिकतर उन दवाओं को किया जाता है जो काफी महंगी होती हैं। महंगी दवाओं से अंदाजा 5 रुपये से अधिक एक टैबलेट या कैप्सूल से लगाया जाता है। जबकि ऐसी कोई दवा नहीं कि मेडिकल में न हो। नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर फार्मेसी डिपार्टमेंट के एक कर्मचारी ने बताया कि महंगे कैप्सूल और टैबलेट को इसलिए मना कर दिया जाता है ताकि रेजिडेंट्स का कोई रिश्तेदार या हॉस्पिटल के कर्मचारी या अधिकारी का कोई जान पहचान का आए तो उनके लिए उपलब्ध हो सकें। वैसे भी स्टॉक में इन दवाओं की मात्रा और बाकी नॉर्मल दवाओं के काफी कम होती है।
 
तो ऐसे लगता है जुगाड़

वैसे तो मरीजों को महंगी दवाओं के लिए अमूमन मना कर दिया जाता है फिर भी हॉस्पिटल में ऐसे लोग पहुंचते हैं जिनकी हालत काफी बुरी होती है। वो अपने मरीज के लिए बाहर से दवा बिल्कुल भी नहीं खरीद सकते तो वो ठीक कैसे होगा? डिस्पेंसरी में अगर मरीज और तीमारदार दवा के लिए अड़ जाता है तो उसे काउंटर पर किसी डॉक्टर या ऊपर से लिखवाकर लाने को कहा जाता है। आखिर ये ‘ऊपर’ है क्या? ये है फार्मेसी डिपार्टमेंट। फार्मेसी डिपार्टमेंट में एक छोटी पर्ची बनाई जाती है। उस पर्ची को नीचे काउंटर पर देने से दवा आसानी से मिल जाती है।
 
फिर तो नहीं पडऩी चाहिए कमी

मेडिकल कॉलेज एडमिनिस्ट्रेशन की मानें तो मरीजों को दवाएं देने के लिए  सालाना तीन से चार करोड़ रुपये का बजट आता है। जिन्हें क्वार्टली खर्च किया जाता है। कॉलेज एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार ज्यादातर उन दवाओं पर पहले ध्यान दिया जाता है जो काफी नॉर्मल बीमारियों की होती हैं। जैसे बुखार, खांसी, जुकाम आदि.  वहीं गंभीर बीमारियों की दवाएं कम मंगाई जाती हैं। अगर खत्म हो जाती हैं तो उनका ऑर्डर भी दे दिया जाता है।


"मुझे कई दिनों से बुखार है। पिछले ढाई घंटे में लाइन लगने के बाद तो नंबर आया। आधी दवाएं मिली और आधी दवाओं के लिए मना कर दिया। उससे पहले भी कई लोगों को भी पूरी दवाएं नहीं मिली."
-ताज मुहम्मद, गढ़

"मेरी भतीजी पायल को बुखार है। उल्टी और दस्त भी हो रहे हैं। हमें भी पूरी दवाएं नहीं मिली हैं। जबकि सरकारी अस्पतालों में पूरी दवाएं मिलती हैं। मैंने इन दवाओं के रेट पता किए हैं काफी महंगी दवाएं हैं."
- राजबहादुर, शक्ति विहार

 

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