साल 2013 में बॉलीवुड की फ़िल्मों ने कमाई के नए आयाम छुए. बॉक्स ऑफ़िस पर 100 करोड़ रुपए कमाने की अवधारणा पुरानी हो गई और अब 200 करोड़ रुपए की बातें होने लगीं.

वहीं कई बड़े बजट की फ़िल्मों को मुंह की खानी पड़ी और कई छोटे बजट की फ़िल्मों ने गहरा असर छोड़ा. फ़िल्म समीक्षक नम्रता जोशी ने साल 2013 का बॉलीवुड का रिपोर्ट कार्ड बनाया. पहले नम्रता की नज़र में वो फ़िल्में जिन्होंने किया निराश.
निराशाजनक फ़िल्में

1. 'बेशरम': रिलीज़ से पहले फ़िल्म का बहुत हाइप था. रणबीर कपूर 'ये जवानी है दीवानी' की शानदार कामयाबी के रथ पर सवार थे. साथ ही पूरा फ़ैमिली पैकेज था फ़िल्म में. उनके पिता ऋषि कपूर और मां नीतू कपूर भी मौजूद थे. निर्देशक अभिनव कश्यप के खाते में 'दबंग' जैसी ब्लॉकबस्टर फ़िल्म थी, लेकिन 'बेशरम' बिलकुल बेदम और बेजान निकली. इतनी फूहड़ और बेतुकी कॉमेडी, जिसका कोई हिसाब नहीं. लंबे समय बाद ऐसी फ़िल्म आई, जिसका हर पहलू ख़राब था. एक्टिंग से निर्देशन तक सब घटिया. इसी वजह से दर्शकों ने कपूर परिवार के इस 'एडवेंचर' को बिलकुल नकार दिया.
2. 'बॉस': बड़े अरमानों से अक्षय कुमार यह फ़िल्म लेकर दर्शकों के सामने आए. फ़िल्म में थे यो-यो हनी सिंह के गाए कुछ फूहड़ गीत और अक्षय कुमार का 'लार्जर दैन लाइफ़' प्रस्तुतिकरण. अक्षय कुमार ने दावा किया कि मसाला फ़िल्मों के शौक़ीन लोगों के लिए तमाम मसाले फ़िल्म में हैं, लेकिन दर्शकों ने उनकी एक न सुनी. अक्षय कुमार का 'बॉस' बनना लोगों का रास न आया और बॉक्स ऑफ़िस पर उनकी यह फ़िल्म फ़्लॉप हो गई.

3. 'इश्क़ इन पेरिस': इसे प्रीति ज़िंटा की 'कमबैक फ़िल्म' कहा गया, लेकिन फ़िल्म में क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, कुछ समझ नहीं आ पाया. फ़िल्म में सलमान ख़ान जैसे सुपरस्टार ने एक आइटम सॉन्ग भी किया था, लेकिन लोगों को ख़ुश करने के लिए यह काफ़ी नहीं था. तो अपनी 'कमबैक' के लिए प्रीति ज़िंटा को कोई और फ़िल्म करनी पड़ेगी.
4. 'जैकपॉट': कैज़ाद गुस्ताद ने एक स्मार्ट फ़िल्म बनाने के चक्कर में ख़ुद को ग़लत साबित किया. यह समझ से परे है कि नसीरुद्दीन शाह जैसे अभिनेता ने ऐसी फ़िल्म क्यों की? बड़ी बचकानी और बेहूदा किस्म की फ़िल्म थी. ऐसी फ़िल्में क्या सोचकर बनाई जाती हैं, यह समझना बड़ा मुश्किल है.
ये तो थीं साल 2013 की कुछ सबसे बुरी फ़िल्में. इसके अलावा शाहिद कपूर की 'आर.राजकुमार' को भी इसी लिस्ट में रखा जा सकता है. हालांकि फ़िल्म हिट साबित हुई, लेकिन ये द्विअर्थी संवादों और बेतुके दृश्यों से भरी फ़िल्म थी, जिसमें क़दम-क़दम पर औरतों का प्रस्तुतिकरण बहुत ख़राब तरीक़े से किया गया है. आजकल के प्रगतिवादी दौर में ऐसी फ़िल्मों का बनना बेहद अफ़सोसजनक है.
सुपरहिट फ़िल्में
हिट फ़िल्मों की बात करें, तो एक बार फिर साबित हो गया कि मौजूदा दौर में ख़ान कलाकारों की सुपरस्टारडम को चुनौती देने वाला फ़िलहाल तो कोई नहीं है.

जहां शाहरुख़ ख़ान की 'चेन्नई एक्सप्रेस' ने समीक्षकों की आलोचना के बावजूद 200 करोड़ रुपए से ज़्यादा का कारोबार किया, वहीं मिस्टर परफ़ेक्शनिस्ट आमिर ख़ान की 'धूम-3' भी बॉक्स ऑफ़िस पर तहलका मचा रही है और सिर्फ़ नौ दिनों में 200 करोड़ रुपए से ऊपर का कारोबार किया. हालांकि 'धूम-3' को भी समीक्षकों की मिली-जुली प्रतिक्रिया मिल रही है. वहीं ऋतिक रोशन ने भी 'कृष-3' से धमाल मचाया और फ़िल्म व्यापार विशेषज्ञों के मुताबिक़ 244 करोड़ रुपए का कारोबार किया.
दिल को छूने वाली फ़िल्में
लेकिन इस साल जिन फ़िल्मों ने मेरे दिल को छुआ वो ये हैं.

'साहेब, बीबी और गैंग्स्टर रिटर्न्स': हालांकि फ़िल्म को मनमाफ़िक कामयाबी नहीं मिली और समीक्षकों ने इसकी आलोचना भी की, पर मुझे यह फ़िल्म अच्छी लगी. काफ़ी चुटीले संवाद थे. इरफ़ान ने कमाल का अभिनय किया. मेरे हिसाब से यह साल 2013 की कुछ अच्छी फ़िल्मों में एक थी.
'काय पो छे': हालांकि इस फ़िल्म में 2002 के गुजरात दंगों से उपजे हालात को बेहद 'सिंप्लिस्टिक' तरीक़े से पेश किया गया था, लेकिन फ़िल्म दिलचस्प बनी थी. सभी कलाकारों का काम बेहतरीन था. ख़ासतौर से राजकुमार यादव ने तो शानदार एक्टिंग की. 'रॉक-ऑन' के बाद निर्देशक अभिषेक कपूर की एक और अच्छी फ़िल्म थी 'काय पो छे'.

'लूटेरा': हालांकि फ़िल्म जैसी बनी उससे कहीं ज़्यादा प्रभावशाली बन सकती थी लेकिन फिर भी साल की बाक़ी फ़िल्मों पर नज़र डालें, तो यह काफ़ी बेहतर फ़िल्म नज़र आती है. काश, निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने पटकथा के साथ और न्याय कर पाते तो यह एक बेहतरीन फ़िल्म बन सकती थी.
'शिप ऑफ़ थीसियस': ये साल 2013 की ही नहीं बल्कि बीते कुछ सालों की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक थी. क्या कमाल की फ़िलॉसफ़ी थी, बेहतरीन पोएट्री थी. ज़िंदगी का नज़रिया शानदार तरीक़े से दिखाया गया था. फ़िल्म का हर फ़्रेम जानदार है. चाहे वह कहानी हो या विज़ुअल्स. सब कुछ बेहतरीन है.
'शाहिद': असल जीवन के किरदार शाहिद आज़मी के जीवन पर बनी इस फ़िल्म के निर्देशक हंसल मेहता ने बेहद संवेदनशील तरीक़े से फ़िल्म को बनाया. एक बार फिर राजकुमार यादव ने दिखा दिया कि वह बहुत सधे हुए अभिनेता हैं.
इसके अलावा इरफ़ान की फ़िल्म 'लंचबॉक्स' का ज़िक्र न करना नाइंसाफ़ी होगी. बहुत ही ख़ूबसूरत फ़िल्म थी. इरफ़ान तो कमाल थे ही, निमरत कौर और नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी ने भी कमाल का काम किया था.

Posted By: Kushal Mishra