-शहर के 90 प्रतिशत भिखारी नशे की आदत में लिप्त

PATNA: भिखारियों का सच की पेश है दूसरी कड़ी। जिसमें हम बता रहे हैं मासूम दिखने वाले बाल भिखारियों की जिंदगी की कड़वी सच्चाई। क्या वास्तव में ये बच्चे हालत के मारे हुए हैं या फिर कुछ और ही कहानी हैबहरहाल जो भी हो। ये बच्चे हैं तो समाज के ही अंग। जिनके प्रति जिम्मेदारी भी हम सबकी है

संडे को डाक बंगला चौराहे पर लाल बत्ती देख मैंने जैसे ही कार रोकी, एक छोटा सा बच्चा पास आकर खड़ा हो गया। चिलचिलाती धूप से तमतमाया लाल चेहरा किसी परेशानी का संकेत दे रहा था। कार का ग्लास थोड़ा सा खुलते ही उसकी आवाज कान तक पहुंची। साहब बहुत भूख लगी है, सुबह से कुछ नहीं खाया। कई गाडि़यों का शीशा पोछा, लेकिन एक रुपया भी नहीं मिला यह कहकर वह शीशे पर हाथ फेरने लगा। मैं कुछ समझ पाता या उसके लिए कुछ कर पाता सिग्नल हरा हो गया और पीछे से गाडि़यों की हार्न पर हार्न बजने लगे। खचाखच ट्रैफिक में आगे बढ़ने की मजबूरी में मासूम की पीड़ा पीछे छूट गई।

-कचोटती रही मासूमियत, फिर पहुंचा उसके पास

मासूम का चेहरा नहीं भूल रहा था। उसकी मासूमियत दिल को कचोट रही थी। हाथ स्टीयरिंग पर थे, लेकिन पैर एक्सिलेटर दबा नहीं पा रहे थे। थोड़ी दूर जाकर गाड़ी सड़क पर ही पार्क कर दिया और वहां से पैदल ही मासूम के पास चल पड़ा। डाक बंगला लाल बत्ती के पास गाडि़यों की भीड़ में वह एक स्कार्पियो का शीशा साफ करता दिख गया। वह शीशा साफ कर पैसा लेता इसके पहले ही सिग्नल हुआ और गाड़ी आगे बढ़ने लगी। वह कुछ दूर तक साथ दौड़ा लेकिन धीरे धीरे उसकी गति कम हो गई और सड़क की बांयी तरफ फुटपाथ पर जाकर बैठ गया। उसके पास पहुंचकर जब कुछ पूछना चाहा तो वह बिना कुछ बोले वहां से आगे बढ़ गया। उसकी इस हरकत से मन में अजीब से हुआ फिर भी उसके पीछे कुछ दूर तक चला। वह साथी बच्चों के बीच जाकर बैठ गया तब मैं पीछे हट गया।

-जताया भरोसा तो सामने आया भीख का सच

मासूम की पीड़ा के बारे में सोचता रहा और सोमवार की सुबह ही फिर डाक बंगला चौराहा पहुंच गया जहां वह लड़का मिला था। वह फिर गाडि़यों का शीशा पोछ रहा था। साथ ले गया खाने का पैकेट जैसे ही उसके हाथ में दिया उसके चेहरे पर मासूमियत भरी मुस्कान दिखी लेकिन खाने से अधिक वह पैसा पर जोर दे रहा था। बोला साहब कुछ पैसा तो दे दो। यह बात थोड़ी अटपटी लगी, क्योंकि अभी तक खाने के लिए पैसा मांग रहा था और अब खाना का पैकेट मिला तो भी पैसा मांग रहा है। मुझे कुछ शक हुआ और उस पर भरोसा जताने के लिए बातों में बहलाया और फिर पास में एक जूस की दुकान पर ले गया। फिर उसने जो खुलासा किया वह जान कर आप भी हैरान हो जाएंगे।

मासूम के साथ रिपोर्टर की बातचीत के अंश

रिपोर्टर - बेटा तुम्हारा घर कहा है?

मासूम - घर तो बहुत दूर है साहब, फलमंडी के आगे।

रिपोर्टर - घर में कौन कौन है, खाना नहीं मिलता क्या?

मासूम - घर से तो खाना मिलता है लेकिन खर्चा नहीं मिलता।

रिपोर्टर - खर्चा कैसा, तुम्हे तो पढ़ना लिखना चाहिए?

मासूम - घर में मेरे भैया और छोटा भाई भी तो नहीं पढ़ा है।

रिपोर्टर - अच्छा बताओ तुम्हारा खर्चा क्या है?

मासूम - बहुत खर्चा है। कुछ खाने का मन करता है तो नहीं मिलता।

रिपोर्टर - तो गाडि़यों का शीशा साफ कर पैसा मांगते हो?

मासूम - पहले वैसे पैसा मांगता था तो कम मिलता था, शीशा साफ करने से अधिक मिलता है।

रिपोर्टर - अच्छा तो क्या करते हो इस पैसे का?

मासूम - बस दिन भर जो मिलता है खाता पीता हूं शाम को घर जाता हूं।

रिपोर्टर - तुम अकेले खाते हो या अपने भाईयों को भी खिलाते हो?

मासूम - नहीं जो मिलता है हम दोस्तों के साथ खाने में खत्म हो जाता है।

रिपोर्टर - दोस्त कौन दोस्त हैं तुम्हारे?

मासूम - वो देखो जो वहां तीन चार बैठे हैं, वह भी गाड़ी साफ करते हैं।

रिपोर्टर - आखिर तुम लोग खाते क्या हो?

मासूम - बताउं तो पैसा दोगे क्या?

रिपोर्टर - हां हां तुम बताओ तो क्या खाओगे मै खरीदता हूं?

मासूम - साहब एक सुलेशन खरीद दो?

रिपोर्टर - सुलेशन यह क्या है?

मासूम - जो जूता चिपकाने के काम में आता है। किसी भी दुकान पर मिला जाएगा।

रिपोर्टर - अरे इसका क्या करोगे।

मासूम - सूंघने से बहुत अच्छा लगता है। भूख नहीं लगती। बहुत अच्छा लगता है। पैसा दो उस साइकिल वाली दुकान से लाता हूं।

रिपोर्टर - अरे यह तो पहली बार सुन रहा हूं कि सुलेसन सूघंने से अच्छा लगता है? किसने आदत दिलाई?

मासूम - साहब साथ में कुछ लड़के रहते हैं उनके साथ एक दो बार सूंघा तो अच्छा लग गया। अब तो इसके बिना अच्छा नहीं लगता।

रिपोर्टर - आखिर कैसे सूंघते हो इसको?

मासूम - साहब पचीस रुपया दो, एक टयूब मिल जाएगा?

रिपोर्टर - अरे पहले बताओ तो कैसे सूंघते हो और एक टयूब कितने दिन चलाते हो?

मासूम - एक कपड़े पर सुलेसन का पूरा टयूब पोत लेते हैं फिर उसे मुंह से खींच लेते हैं। पैसा दो लाता हूं तुम भी सूंघ कर देखो बहुत सुकून मिलेगा।

रिपोर्टर - यह बहुत खतरनाक है और इससे तुम्हारी जिंदगी बरबाद हो जाएगी?

मासूम - तुम पैसा दोगे या फिर मैं जाउं, इतनी देर में तो मेरे साथी बहुत पैसा कमा लिए होंगे।

रिपोर्टर - तुम्हे और कुछ खाना हो खा लो लेकिन अब तो हाथ में पैसा नहीं दूंगा, तुम्हे खतरनाक लत लग गई है?

मासूम - तब क्या तो जाओ मुझे अपना काम करने दो।

खुला आश्रय के आंकड़े भी खतरनाक

'खुला आश्रय' में भी जो आंकड़े हैं वह चौंकाने के लिए काफी है। वहां के कर्मियों की मानें तो पकड़े गए बच्चों में 90 प्रतिशत नशे के लिए भीख मांगते हैं। हाल के वर्षो में दो सौ बच्चे आए हैं जो नशे के आदि पाए गए हैं। दो दिनों पूर्व भी म् बच्चे भीख मांगते पकड़े गए जिसमें कई ऐसे मिले जो नशे के गिरफ्त में हैं। एक बच्चा तो ऐसा भी मिला जिसके पैर में घर वालों ने लोहे की बेड़ी लगा दी थी। इसके बाद भी नशे के लिए घर से भाग गया था। काउंसलरों का कहना है कि नशा के लिए बच्चे भीख मांगना ही नहीं, और भी बहुत कुछ भी कर सकते हैं। इस सच्चाई को बच्चों ने भी स्वीकार किया है।

Posted By: Inextlive