बिहार में नक्सलियों के वर्चस्व वाले इलाके में भारतीय प्रशासनिक सेवा के दो अधिकारियों द्वारा चलाई जा रही कोचिंग संघर्ष की छाया में जी रहे स्थानीय लोगों के लिए उम्मीद की किरण बन कर उभरी है

 

दीपक आनंद और मिथिलेश मिश्रा ने बाँका के दूरदराज़ आदिवासी जिले में ‘सुपर-12’ सेंटर खोला. इस जगह पर वो प्रशासनिक अधिकारी के रूप में काम कर रहे है.

ये सेंटर देश की सबसे कठिन प्रतियोगिता ‘सिविल सेवा परीक्षा’ की तैयारी के लिए 12 छात्रों को मुफ्त कोचिंग, भोजन और आवास उपलब्ध कराता है.

हर साल, हजारों हज़ार की तादाद में छात्र इस परीक्षा में शामिल तो ज़रुर होते हैं, लेकिन छात्रों का बेहद छोटा हिस्सा ही पास होकर भारत सरकार में प्रशासनिक अधिकारी के रुप में नौकरी का पात्र बन पाता हैं.

'विनम्र पृष्ठभूमि'

दीपक आनंद और मिथिलेश मिश्रा ने बाँका के दूरदराज़ आदिवासी जिले में ‘सुपर -12’ सेंटर खोला ये दोनों ही अधिकारी विनम्र पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं.

इन दोनों अधिकारियों का कहना है,"बाँका एक पिछड़ा इलाका है और शैक्षिक सुविधाएं बेहद सीमित हैं. इसलिए हम यहां के उन युवाओं के लिए कुछ करना चाहता थे जो पढ़ाई की तो इच्छा रखते हैं, लेकिन उनके पास न तो उचित मार्गदर्शन है और ना ही अध्ययन सामग्री है."

बाँका एक दुर्गम पहाड़ी सीमांत ज़िला है, जहाँ बिजली, पानी, अस्पताल और शिक्षा जैसे बुनियादी सुविधाओं की कमी है. साथ ही यहाँ की आबादी में 40% से अधिक आदिवासी हैं.

अधिकांश इलाका माओवादी विद्रोहियों के नियंत्रण में है और सरकारी अधिकारी यहाँ तक कि दिन में भी वहाँ जाने से डरते हैं.

पहली बार जब उन्होंने स्थानीय समाचार पत्र में अपने सेंटर में प्रवेश के लिए विज्ञापन दिया तो उन्हें सैकड़ों आवेदन मिले.

2011 में सिविल सेवा परीक्षा पास करने वाले मिथिलेश मिश्रा ने बताया, "कुछ जांच के बाद, हमने 354 छात्रों को प्रारंभिक परीक्षा के लिए चुना, इनमें से 60 छात्रों को मुख्य परीक्षा के लिए चुना गया."

"इसके बाद हमने साक्षात्कार के लिए 60 में से 21 को चुना और फिर अंत में एक छात्रा समेत 12 छात्रों का चयन किया."

इन चुने हुए 12 छात्रों के साथ ही इन्होंने 12 दिसंबर 2012 को ‘द सुपर 12’ की शुरुआत की .

चौबीस साल के कामदेव दास, चपरियाडीह गांव के एक गरीब किसान का लड़के हैं, वो इन किस्मतवाले 12 लोगों में से एक हैं. कामदेव दास ऐसे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने गांव में स्नातकोत्तर किया हैं,

वो कहते हैं, "एक दिन, कुछ माओवादी मेरे गांव आए और उन्होंने युवाओं को शामिल होने को कहा. मैंने मना कर दिया और उनसे गुस्से से बचने के लिए गांव से भाग निकला."

वो कहते हैं,"मैंने सिविल सेवक बनने और समाज के सबसे वंचित वर्गों की सेवा का सपना देखा था. मैं माओवादियों के साथ शामिल नहीं होना चाहता था."

20 साल के अमित कुमार साह, भरौना गांव के रहने वाले हैं और इतिहास में स्नातक हैं, वो भी सुपर 12 में जगह बना पाने में कामयाब हुए हैं.

 "पाठ्यक्रम के मुताबिक छात्रों को सारी अध्ययन सामग्री दी गई है, उन्हें बस कड़ी मेहनत की ज़रुरत है और इसके लिए उन्हें लगातार प्रोत्साहित किया जा रहा है."-दीपक आनंद, ज़िला अधिकारी

उनके पिता, कपिलदेव साह, गांव में एक छोटी सी दुकान चलाते हैं, वो कहते हैं, "बचपन से ही मैं एक प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहता हूँ ताकि मैं गरीब गांव वालों की मदद कर उन्हें घातक माओवादियों से बचा सकूं."

'उल्लेखनीय सुधार'

दीपक आनंद कहते हैं कि पाठ्यक्रम के मुताबिक छात्रों को सारी अध्ययन सामग्री दी गई है, उन्हें बस कड़ी मेहनत की ज़रुरत है और इसके लिए उन्हें लगातार प्रोत्साहित किया जा रहा है.

वो बताते हैं कि "तीन महीने के बाद हम देख सकते हैं, कि सबमें उल्लेखनीय सुधार हुआ है." 

दो सरकारी अधिकारी भी नियमित रूप से छात्रों को पढ़ाने के लिए आते हैं, वरिष्ठ उप ज़िलाअधिकारी ललित कुमार सिंह नियमित तौर पर पढ़ाने आते हैं.

ललित कुमार सिंह कहते हैं कि सामान्य अध्ययन और अंग्रेजी की कक्षाएं लेने के साथ साथ वो छात्रों को हर दिन बीबीसी रेडियो समाचार सुनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं."

उनकी इस बात से मिथिलेश मिश्रा भी सहमत हैं. वो कहते हैं "जब मैं अपनी सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहा था, तो बीबीसी ने मेरी बहुत मदद की."

दोनों अधिकारियों को उम्मीद है कि इस साल 12 छात्रों में कम से कम आधे तो इस परीक्षा को पास कर ही जाएंगे. छात्रों को भी उम्मीद है कि इस साल वो इस परीक्षा में पास हो जाएंगे.

 

Posted By: Garima Shukla