Bareilly: जीवनभर साथ निभाने के वादे महज एक यूनिट खून देने की बात आते ही पता नहीं कहां गुम हो जाते हैं. डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में आए दिन आने वाली ये कंडीशन समाज की एक और भयानक तस्वीर दिखाती है. यहां डिलीवरी के टाइम महिला को पति तक खून देने के लिए तैयार नहीं होते और बहाने तलाशने लगते हैं. ऐसे में बाकी परिवारवालों की तो बात ही छोड़ दीजिए. कई केसेज में तो प्रेगनेंट महिलाएं मरणासन्न अवस्था में पहुंच जाती हैं और ससुराल वाले तो दूर मायके वालों का दिल भी नहीं पसीजता. सब उसे हॉस्पिटल में छोड़कर भाग खड़े होते हैं. हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन खुद ऐसे तमाम केसेज का चश्मदीद गवाह है.


Case-1जगतपुर निवासी रुखसार (बदला हुआ नाम) को 23 मई को महिला डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में एडमिट करवाया गया। प्रेगनेंट शबनम एनीमिक थी। नॉर्मल डिलिवरी का केस था मगर हैवी ब्लीडिंग हो रही थी। एडमिनिस्ट्रेशन ने जब हसबैंड से ब्लड देने के लिए कहा तो वह परिजनों का मुंह तकने लगा। फाइनली हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन को अपने स्तर पर ब्लड का अरेंजमेंट करना पड़ा। तब जाकर रुखसार की जान बचाई जा सकी। Case-2सीबीगंज निवासी आरती (बदला हुआ नाम) को 2 जून को महिला डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में एडमिट किया गया। आरती की सिजेरियन डिलीवरी होनी थी। पेशेंट एनीमिक थी। इसलिए हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन ने परिजनों से ब्लड अरेंज करने के लिए कहा। दो दिन बाद भी परिवार वाले ब्लड अरेंज नहीं कर सके। तब तक पेशेंट की कंडीशन बिगड़ गई। Last में आते हैं hospital


महिला डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल की सीएमएस मंजरी नारायण सक्सेना ने बताया कि एनीमिक पेशेंट्स तीन कैटेगरी के होते हैं। सीवियर एनीमिक, मॉडरेट एनीमिक और माइल्ड एनीमिक.  हॉस्पिटल में ज्यादातर केसेज सीवियर एनीमिक होते हैं। हॉस्पिटल में आने वाले तीमारदार प्रेगनेंट लेडी को तब हॉस्पिटल में लाते हैं, जब हालात बहुत सीरियस हो जाते हैं। ज्यादातर केसेज में पेशेंट्स को हैवी ब्लीडिंग होती है। सीवियर एनीमिया के केस में नॉर्मल डिलीवरी में भी यूट्रस कॉट्रेक्ट नहीं कर पाता है। इसके बाद ब्लीडिंग ज्यादा होती है। इन सबके बावजूद सबसे दुखदाई कंडीशन तब होती है जब पेशेंट की जान पर बनी होती है और उसका पति अपनी कमजोरी और परिजनों की दुहाई देकर ब्लड देने के नाम पर नजरें चुरा लेता है। शहरवाले पति भी ऐसे हीउन्होंने बताया कि कुछ केसेज तो ऐसे भी निगाह में आए, जहां घरवाले प्रेगनेंट लेडी को सीरियस कंडीशन में हॉस्पिटल में छोड़कर भाग जाते हैं। इसके बाद हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन ही उसकी देखभाल करता है। अगर उसकी कंडीशन थोड़ी सी भी बिगड़ जाए तो परिजन हॉस्पिटल में हंगामा और तोडफ़ ोड़ करने लगते हैं। डॉ। मंजरी कहती हैं कि डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में आने वाले 65 फीसदी केसेज गांव के होते हैं। जबकि 35 फीसदी शहरी लोगों के होते हैं। आश्चर्यजनक बात है कि इस दकियानूसी सोच के शिकार केवल गांव के पति ही नहीं बल्कि शहरवाले भी हैं। ब्लड देने के नाम पर पत्नी और होने वाला बच्चा, उन्हें कोई नहीं दिखता।क्या बहाने मिलते हैं सुनने को-खून देने से कमजोरी आ जाएगी।-मैंने कुछ समय पहले ही ब्लड डोनेट किया है।-मुझे इंफेक्शन है।-ससुराल और मायके वाले एक-दूसरे पर ब्लड देने का दबाव बनाते हैं।

-तमाम लोग यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि हॉस्पिटल की जिम्मेदारी है वही ब्लड अरेंज करे।गर्भवती महिला पूरे परिवार की जिम्मेदारी होती है। उसकी प्रॉपर केयर करनी चाहिए लेकिन जिस तरह से अपनी प्रेगनेंट वाइफ के लिए हसबैंड्स की लापरवाही देखने में आ रही है, उसे देखकर हैरानी होती है। हॉस्पिटल तक आने वाले ज्यादातर केस एनीमिक और हाथ से बाहर होते हैं। उसके बाद भी हम अपनी पूरी कोशिश करते हैं। फिर अनहोनी होने पर हंगामा भी झेलते हैं। मैं सजेस्ट करना चाहती हूं कि एनीमिया की प्रॉब्लम से निपटने के लिए गांव के लोग गुड़ चना जैसी घरेलू चीजें यूज कर सकते हैं और ज्यादा से ज्यादा हरी सब्जियां खिलाएं। तो ये सिचुएशन ही नहीं आएगी। -मंजरी नारायण सक्सेना, सीएमएस, महिला डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल

Posted By: Inextlive