इंडियन टेलिविजन में बहुत ही कम सीरियल्स हैं जिन पर ईमानदारी से फख्र किया जा सकता है. ऑफिस ऑफिस बेशक उनमें से एक हैं. मुसद्दीलाल त्रिपाठी जैसे आम आदमी की इमेज मेंं पंकज कपूर ने ऑडिएंस के सही सेंटिमेंट्स को छुआ है. एपिसोड दर एपिसोड वह सिस्टम और करप्ट गवर्नमेंट सर्वेंट के खिलाफ लड़ते रहे हैं.


इस सीरियल के साथ लोगोंं का एक अलग ही तरह का अटैचमेंट था मगर पंकज कपूर उससे एक कदम आगे चले गए और इस पर फिल्म बनाकर इसको बर्बाद कर दिया. ऑफिस ऑफिस के पॉपुलर होने की वजह रियलिटी को बखूबी पोर्टे्र करना था जो मूवी में गायब है. कहीं-कहीं फिल्म काफी रियल लगी है लेकिन कई सीन बनावटी हैं. कुछ चीजों को इतने कैजुअल तरीके से हैंडल किया गया है कि ये बच्चों का कोई स्कूल-प्ले नजर आता है. सीरियस इश्यूज को भी लाइटली लिया गया है.


मुसद्दीलाल (पंकज कपूर) की वाइफ की डेथ हो जाती है एक किडनी रैकेट की वजह से. जब मुसद्दी और उनका बेटा (गौरव कपूर) तीर्थ करने जाते हैं, पेंशन ऑफिस के लोग उन्हें मरा हुआ डिक्लेयर करके उनकी पेंशन रोक देते हैं. स्टोरी घूमती है मुसद्दी के स्ट्रगल के इर्द-गिर्द जो वह खुद को जिंदा प्रूव करने और करप्शन के खिलाफ करते हैं.

फिल्म पूरी तरह से प्रिडिक्टिबल है. शॉर्ट में कहें तो ऐसा लगता है कि फिल्म ऑफिस-ऑफिस सीरियल के एक मजेदार एपीसोड को लेकर और उसे जरूरत से ज्यादा खींचकर बना दी गई है.  पंकज कपूर की एक्टिंग जबरदस्त है. बेटे के रोल में गौरव कपूर का काम ठीक है. बाकी कास्ट ने भी ठीक-ठाक परफॉर्म किया है. फिल्म ठीक है मगर टीवी सीरीज जितनी इंगेजिंग नहीं.

Posted By: Garima Shukla