- स्कूल मैनेजमेंट तय करता है कि पेरेंट्स कहां से खरीदें कॉपियां

- पेरेंट्स लगा रहे कॉपियों पर कमिशन वसूलने का आरोप

रूद्गद्गह्मह्वह्ल : पब्लिक स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना पेरेंट्स के लिए भारी पड़ रहा है। एडमिशन के साथ ही कई माध्यमों से पेरेंट्स की जेबों पर डाका डाला जा रहा है। सिलेबस कहां से लेना है, ड्रेस किस दुकान से लेनी है, यहां तक की नोट बुक कौन से बाजार से किस शॉप से खरीदनी है। यह सभी तमाम बातें स्कूल मैनेजमेंट तय करता है।

वेरायटी का नहीं होता पता

सुभाष बाजार में कॉपियों व स्टेशनरी का सामान थोक के रेट में मिलता है। सुभाष बाजार स्थित शॉप दीप चंद कॉपी शॉप के संचालक दीपक ने बताया कि मार्केट में कॉपियों की इतनी वेरायटी है कि कई वेरायटी तो हम ही नहीं पहचान पाते हैं, तो कस्टमर उन्हें कैसे पहचानेगा। वहीं सुभाष बाजार स्थित श्यामसिंह स्टेशनरी के श्यामसुंदर सिंह ने बताया कि कॉपियों की 40 से ज्यादा वैरायटी हैं। आप चाहकर भी ये नहीं पता लगा सकते हैं कि कॉपियों की असल कीमत कितनी है।

स्कूल नाम का भी है खेल

कई स्कूलों में स्टेशनरी व कॉपियों के लिए पेरेंट्स से पैसे जमा करा लिए जाते हैं। पैसे जमा कराने के साथ ही बच्चों को जो कॉपियां दी जाती है, उन पर स्कूल का एड होता है। कॉपियां तैयार करने में भी स्कूल को काफी मार्जिन मिलता है। कंपनियों के ऐजेंट स्कूलों की मनचाही कॉपियां तैयार कराते हैं। स्कूल से जितनी ज्यादा कॉपियों का आर्डर दिया जाता है, रेट उसी हिसाब से तय होते हैं। कुछ स्कूल तो एजेंसी वालों से या फिर शॉप वालों से कमिशन तय कर लेते हैं। बच्चों को कॉपियां खरीदने के लिए एक ही दुकान का नाम बता दिया जाता है। अब पेरेंट्स भी मजबूर होकर उसी दुकान पर जाते हैं।

जानकारी नहीं

अधिकर पेरेंट्स को कॉपियों के बारे में जानकारी नहीं है, जिसका नतीजा है कि कॉपियों का साइज छोटा करने के साथ उनके पेज भी घटा दिए गए हैं। साथ ही उसकी लंबाई व चौड़ाई भी घटा दी गई है।

घटा दिए पेज

- जिस क्वालिटी की कॉपियां पेरेंट्स को सस्ते में मिलती हैं। उसी क्वालिटी की कॉपियां बच्चों को स्कूल में महंगी दी जा रही है।

- 15 रुपए वाली कॉपी में पहले 96 पेज आते थे अब 80 पेज हैं, इसके साथ ही क्वालिटी को बहुत गिरा दिया गया है।

- 20 रुपए के एक बड़े रजिस्टर में पहले 172 पेज आते थे। लेकिन स्कूल का नाम लगाने पर अब 144 पेज कर दिए गए हैं। इसके साथ ही क्वालिटी भी लो कर दी गई है।

क्या कहते हैं पेरेंट्स

हमें ये जानने का मौका ही नहीं दिया जाता कि जो कॉपियां हमारे बच्चे को दी जा रही है। उसकी असली सही कीमत क्या है।

चारु, पेरेंट्स

मेरे बेटे के स्कूल में तो हमें कॉपियों की गिनती के साथ ही उनकी ब्रांड तक बताई गई है। हमारे पास अपना बजट कम करने का कोई चांस हीं नहीं है।

प्रतिभा, पेरेंट्स

जब स्कूलों में कॉपियों के साइज व गिनती बताई गई है। तो हम इसमें क्या कर सकते हैं हमें तो बस दुकान पर जाकर पैसा देना है।

संजय कालरा, पेरेंट्स

हमने स्टेशनरी के पूरे साल के पैसे स्कूल में जमा कराए हैं। बच्चों को किस क्वालिटी का कॉपी देना है यह स्कूल वाले ही तय करते हैं। इसमें पेरेंट्स की नहीं चलती है।

ज्योति, पेरेंट्स

फिक्स नहीं है शॉप

हमारी कोई फिक्स शॉप नहीं होती है। नाम वाली कॉपी तो केवल कॉपियों शोभा बढ़ाने के लिए होती है।

मधु सिरोही, प्रिंसिपल, एमपीजीएस

ऐसा नहीं है, स्कूल कोई कमिशन नहीं लेते हैं। केवल कॉपियों पर स्कूल का नाम ही दिया जाता है। इसके अलावा कॉपियों से हमें कुछ नहीं मिलता है।

कपिल सूद, प्रिंसिपल, जीटीबी

कॉपियों पर नाम केवल इसीलिए प्रिंट करवाया जाता है ताकि कॉपियां देखने में अच्छी लगे। इसके अलावा हमारी कोई दूसरी मंशा नहीं होती।

चंद्रलेखा जैन, प्रिंसिपल, सेंट जोंस

Posted By: Inextlive