असफल होने पर दूसरों पर दोष मढ़ने या दुखी होने की बजाय हमें अपनी गलतियों को सुधारना चाहिए। तभी दुख हमारे लिए बन सकता है तप समान और इससे बन सकता है आगे की सफलता का योग.. संसार की हर वस्तु में अच्छाई और बुराई दोनों होती है।

श्रीराम शर्मा आचार्य। असफल होने पर दूसरों पर दोष मढ़ने या दुखी होने की बजाय हमें अपनी गलतियों को सुधारना चाहिए। तभी दुख हमारे लिए बन सकता है तप समान और इससे बन सकता है आगे की सफलता का योग.. संसार की हर वस्तु में अच्छाई और बुराई, दोनों होती है।

कुछ वस्तुएं हमें इसलिए बुरी लगती हैं, क्योंकि वे हमारी इच्छाओं में बाधक प्रतीत होती हैं। वास्तविकता इसके विपरीत है। वह हर वस्तु जिसमें हमें केवल अच्छाई ही दिखाई देती है, वह बुराई को भी अपने में छिपाए रखती है। हर बुरी दिखने वाली वस्तु भी अच्छाई से पूर्ण हो सकती है। हालांकि सफलता सबको प्रिय होती है, लेकिन इससे कुछ हानि भी है। असफलता बहुत से कार्यो में हमारे लिए लाभकारी सिद्ध होती है। यह हमें हमारी गलतियों पर विचार करने के लिए विवश करती है। कई बार हम अपनी गलतियों की वजह से अपने कार्य को पूरा नहीं कर पाते हैं। हमारी भूल या गलतियां ही हमें स्वयं को सुधारने की इच्छा को जन्म देती हैं। इससे मन में गलतियों को सुधारने का आधार तैयार होता है।

असफलता के लिए दूसरों को दोष न दें

वास्तव में असफलता का कारण मनुष्य की अपनी कुछ निश्चित भूलें ही हैं। आम तौर पर मनुष्य अपनी असफलता के लिए दूसरों पर दोष मढ़ते हैं। इसके पीछे वजह यह है कि वह स्वयं को इससे मुक्त रखना चाहता है। दूसरी ओर विवेकशील मनुष्य ऐसा नहीं सोचते हैं। वह तो भूलों या गलतियों के लिए स्वयं को दोषी मानते हैं और उसके कारणों की खोज करते हैं और फिर सुधारने का मार्ग ढूंढ़ते हैं।

यदि हम गौर करें, तो पाएंगे कि अस्थिर और असावधान मन, कम मेहनत, आलस्य या फिर समय का ध्यान न रखना आदि जैसे अवगुण हमें असफलता की ओर ले जाते हैं। व्यवहार कुशल न होने पर भी हमें असफलता हाथ लगती है। दरअसल, हमें हर कार्य में दूसरों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है, लेकिन उचित व्यवहार का प्रयोग न करने के कारण भी हमें उनका सहयोग नहीं मिलता है और हम असफल हो जाते हैं।

असफलता भूल सुधार के लिए दिया गया दंड है

यदि आपने भूल की है, तो असफलता उस भूल सुधार के लिए दिया गया दंड है। यह मनुष्य को उचित-अनुचित का ज्ञान करा देती है तथा बिगड़े कार्य को बनाने का मार्ग दिखा देती है। असफलता कष्टकारक है फिर भी यह हमारे चरित्र का निर्माण करती है। दूसरी तरफ सफलता आनंददायी होने के बावजूद अहंकार नामक बुराई को छिपाए रखती है। एक बार सफल होकर ज्यादातर मनुष्य अपनी शक्ति और साहस को अधिक महत्व देने लगते हैं। आत्मविश्वास अच्छी बात है, लेकिन अति आत्मविश्वास कार्य में बाधक भी सिद्ध हो सकते हैं। जो व्यक्ति आत्मविश्वास से भरे होते हैं, वे परिश्रम के साथ सावधानीपूर्वक अपना कार्य करते जाते हैं, इसलिए उनका कार्य आगे बढ़ता रहता है। उन्हें परिणाम के प्रति आसक्ति नहीं होती है। कर्तव्य पर ध्यान रखते हुए बाधाओं से टक्कर लेना आत्मविश्वासी की पहचान है। अहंकार से भरा हुआ व्यक्ति छोटी सी सफलता पर इतना इतराता है कि उन सद्गुणों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता, जिसके माध्यम से कालांतर में उसके व्यक्तित्व का विकास हुआ है। सफलता के नशे में वह अपनी त्रुटियों पर भी विचार नहीं कर पाता।

अहंकार के नशे में चूर न हों

अहंकार के कारण व्यक्ति सज्जनता छोड़ देते हैं और उनका व्यवहार धृष्टतापूर्ण हो जाता है। व्यवहार की धृष्टता मानव मात्र के लिए हानिकारक है। अहंकार से भरे हुए व्यक्ति का कोई मित्र भी नहीं होना चाहता है। ईश्वर को भी यह अवगुण सबसे अधिक अप्रिय है। ईश्वर ने मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ जीव बनाया है। यदि हम गौर करें, तो पाएंगे कि इंसान ज्यादातर कार्य अकेले नहीं, बल्कि दूसरों के सहयोग से ही करते हैं। यहां तक कि भोजन के लिए भी पेड़-पौधों पर वे निर्भर होते हैं। इतना होने पर भी यदि मानव अपने को कर्ता समझकर अहंकार के नशे में चूर रहता है, तो यह अच्छी बात कभी भी नहीं हो सकती है। कभी-कभी तो अहंकार के मद में हम अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए समाज पर कई तरह के अत्याचार भी करने लगते हैं। इससे समाज को लाभ मिलने की बजाय हानि ही मिलेगी। अहंकार समाज और व्यक्ति दोनों के लिए हानिकारक है। अत: हमें इस कुप्रवृत्ति से बचना चाहिए।

कुप्रवृत्ति से बचने का उपाय

कुप्रवृत्ति हमारे अंदर न पनप जाए, इसके लिए हमें प्रयास करना चाहिए। इससे बचने का सरलतम उपाय यह है कि हमें स्वयं को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं आंकना चाहिए। कार्य में सहयोग देने वाले तथा मार्गदर्शन करने वाले का हमें हमेशा आभार मानना चाहिए। वास्तव में मनुष्य को हर कार्य के साथ आत्म निरीक्षण करना चाहिए कि वह कितना महान है तथा कितना तुच्छ? हर मनुष्य को यह जरूर सोचना चाहिए कि एक कार्य की सफलता दूसरे की गारंटी नहीं हो सकती है। यह काल, स्थान तथा परिस्थिति पर निर्भर करता है कि आपको कब और कितना सहयोग आने वाले दिनों में कार्य करने के दौरान मिलेगा? यदि इतनी बातें हम समझ जाएं, तो जीवन जीने की कला भी आसानी से समझ में आ जाएगी। और तभी असफलता से मिलने वाला दुख हमारे लिए तप तथा सफलता से प्राप्त होने वाला सुख हमारे लिए योग बन जाएगा।

तो इस कारण लक्ष्य से भटक जाते हैं हम, नहीं मिलती मनचाही सफलता

अगर आप असफलता से निराश हैं तो आपके लिए यह है सफलता का मंत्र

 

Posted By: Kartikeya Tiwari