फिल्‍में दो तरह की होती हैं। पहली मनोरंजन फिल्‍में जिन्‍हें हम मसाला फिल्‍में भी कहते हैं। और दूसरा आर्ट सिनेमा या समानांतर सिनेमा। समानांतर सिनेमा का मकसद होता है समाज को जागरुक करना। इन फिल्‍मों में कुछ न कुछ ऐसा संदेश छुपा होता है जो समाज को आईना दिखाता है। हिंदी फिल्‍मकारों ने इस तरह की कई फिल्‍में बनाई हैं जो कमाई तो नहीं करतीं लेकिन दर्शकों को सही रास्‍ता जरूर दिखलाती हैं। आइए देखें इनकी एक झलक....

1. दो बीघा जमीन (1953)
साल 1953 में आई फिल्म 'दो बीघा जमीन' काफी फेमस हुई थी। इस फिल्म का निर्देशन विमल रॉय ने किया था। फिल्म में मुख्य कलाकार के तौर पर बलराज साहनी, निरूपा रॉय, रतन कुमार और मीना कुमारी ने बेहतरीन अभिनय कर दर्शकों की वाहवाही लूटी। जैसा कि फिल्म के नाम से प्रतीत होता है, फिल्म की कहानी किसान और उसकी जमीन से जुड़ी है। किसान को भगवान का दर्जा दिया जाता है। इस फिल्म में किसानों की दुर्दशा दिखाई गई है। जमींदार छल-कपट से किसान की जमीन छीन रहा है। किसान अपनी रोजी-रोटी बचाने के लिए हर तरह की कोशिश करता है। इसके लिए वह मेहनत से लेकर चोरी करने पर मजबूर हो जाता है। मगर अपनी जमीन नहीं बचा पाता।
संदेश: हमारे देश में ऐसे कई गांव हैं, जहां आज भी गरीब किसानों का शोषण होता है। यह फिल्म ऐसे जमींदारों के खिलाफ आवाज उठाने की अपील करती है जो अन्नदाताओं को उनके हक से वंचित रखते हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम इस कुप्रथा को जितना जल्दी हो सके समाप्त कर दें।

 


2. सलाम बॉम्बे! (1988)
मायानगरी मुंबई का आलीशान चेहरा तो हमने देखा ही है, लेकिन इस शानो-शौकत के पीछे एक ऐसा काला साया है जिससे हर कोई मरहूम है। इसे पर्दे पर दिखाया है निर्देशक मीरा नायर ने। साल 1988 में आई फिल्म 'सलाम बॉम्बे!' में मुंबई की गलियों में घूमते उन बच्चों की कहानी देखने को मिलती है। जो एक वक्त के खाने के लिए दर-दर भटकते हैं। आखिर में उनके पास मजदूरी के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। इनकी इस कमजोरी का फायदा उठाते हैं होटलों में बैठे धन्नासेठ, जो इनसे भीख मंगवाने से लेकर वेश्यावृत्ति का धंधा तक करवाते हैं। कई बार तो मजबूरन ये बच्चे खून जैसे संगीन अपराधों में भी लिप्त हो जाते हैं। फिल्म में मुख्य कलाकार नाना पाटेकर, इरफान खान और संजना कपूर हैं। इस फिल्म की एक और खास बात है, कि निर्देशक ने बच्चों के किरदार में मुंबई की सड़कों के किनारे रहने वाले गरीब बच्चों को बकायदा ट्रेनिंग देकर अभिनय करवाया।
संदेश: बाल श्रम समाज के लिए एक बड़ा रोग है। इसे जितनी जल्दी दूर किया जा सके, उतना बेहतर है। क्योंकि बच्चे भारत का भविष्य होते हैं। इन्हें अच्छी शिक्षा मुहैया कराई जाएगी तो हमारा कल और उज्जवल हो सकेगा।

 


3. डोर (2006)
साल 2006 में आई फिल्म 'डोर' ने समाज के दोहरे चरित्र पर चोट करी थी। भारत में अभी भी कई ऐसे गांव हैं जहां विधवाओं को आज भी हेय दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें वो सम्मान नहीं मिलता, जिसकी वो हकदार होती हैं। इस गंभीर मुद्दे को पर्दे पर जीवंत किया है निर्देशक नागेश कुकुनूर ने। फिल्म की कहानी राजस्थान के एक गांव के इर्द-गिर्द घूमती है। जहां विधवाओं को लेकर कई दकियानूसी प्रथाएं हैं। हमारा समाज विधवाओं के प्रति कैसा र्दुव्यवहार करता है, यह सबकुछ आपको फिल्म में देखने को मिलेगा। फिल्म में आयशा टाकिया और गुल पनाग ने विधवा का किरदार निभाया है। वहीं श्रेयस तलपड़े बहरूपिए की भूमिका में नजर आए।
संदेश : एक महिला जो अपना पति खो चुकी है, उसे सहारा देने के बजाए हम लोग उसे समाज से बाहर कर देते हैं। बस इसी सोच को बदलने की कोशिश की है फिल्म 'डोर' ने। पुराने ख्यालों से आगे बढकर नई सोच का उजागर करें।

 


4. इट्स ब्रेकिग न्यूज (2007)
मीडिया का काम है जनता को सच बताना। आज मीडिया वाले टीआरपी की रेस में दौड़ रहे हैं। खबरों की मारामारी में मीडिया हाउस कब बिजनेस माड्यूल पर काम करने लगे। इसका अंदाजा उन्हें भी नहीं है। निर्देशक विशाल इनामदार ने साल 2007 में मीडिया पर बेस्ड फिल्म 'इट्स ब्रेकिंग न्यूज' बनाई। यह एक पत्रकार की कहानी है जो काफी मशहूर है। किसी की मदद करते हुए उसे अहसास होता है कि वह गलत कर रही है। वह जुर्म देख और दिखा रही है। मगर उसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर पा रही। फिल्म में कोयल पुरी, स्वाती सेन, अभिमन्यू सिहं और राहुल वोहरा मुख्य भूमिका में हैं।
संदेश: इंसान को अपने काम के प्रति ईमानदार होना चाहिए। मीडिया जिसकी स्थापना समाज में बदलाव के लिए की गई है। उन्हें टीआरपी की भागदौड़ से अलग सिर्फ खबरों पर फोकस्ड रहना चाहिए।

 


5. शिप ऑफ थीसिस (2012)
यह फिल्म एक अंधी फोटोग्राफर, एक साधु और एक शेयर दलाल के इर्द-गिर्द घूमती है। इन तीनों को अंग प्रत्यारोपण की जरूरत है। फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है तो सामने आता है ऑर्गन ट्रैफिकिंग घोटाला। शरीर के अंगों को गैरकानूनी रूप से बेचने का धंधा काफी फल-फूल रहा है। जिस पर अंकुश लगना जरूरी है। हमारे देश में न जाने कितने ऐसे लोग हैं जिनके शरीर से धोखे से अंग निकाल लिए जाते हैं। और उन्हें मोटी रकम में अमीरों को बेच दिया जाता है। आनंद गांधी ने साल 2012 में इसी मुद्दे पर फिल्म बनाई 'शिप ऑफ थीसिस'। जिसमें नीरज काबी, आदिया अल-खशेफ, सोहम शाह और समीर खुराना मुख्य रोल में हैं।
संदेश: यह फिल्म हमें ऑर्गन ट्रैफिकिंग के प्रति सचेत करती है। यदि आपके आस-पास ऐसा कोई मामला सामने आता है, तो तुरंत इसकी शिकायत करें।

 

 

 

Story By : Priya Barasia

 

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari