गुलजार ने कोई कला मुकम्मल नहीं रहता, कुछ न कुछ बाकी रह ही जाता है

 

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गुलजार साहब जब ऑडियोरियम की तरफ बढ़े, तो सब उसी तरफ हो लिए। भला अंत में उनके साथ गुफ्तगु को सुनना कौन छोड़ सकता था। 'मुझको भी तरकीब सीखा दे' में गुलजार ने यतिंद्र मिश्रा के साथ फिल्मों में भाषा और मूड पर ढेर सारी बातें की।

- क्या खास बात होती है, जब आप किसी गीत को लिखते हैं?

मूड, सिचुएशन, बैकग्राउंड और मेरी समझ।

- कोई शुरुआती दौर की बातें हो, तो कहें?

पं गुलशन, पं सुदर्शन बनाते थे, तो मैं कई चीजों को ऑब्जर्व करता था, सीखता था।

- राइटिंग के लिए कोई टर्निग प्वाइंट?

डीएन मडहोक के साथ मेरे काम में एक संजीदगी आई। उनसे मैंने सीखा कि फोकलोर को कैसे गानों में उकेरा जाता है।

- आपकी गानों में एक रहस्य सा होता है। ये कैसे होता है?

गाने में सिचुएशन की बात होती है। एक अंदाज या पहलू। इसमें शायर या गीतकार की समझ का भी पता चलता है। मैं बुल्ले शाह को सुनते आया हूं और हिन्दुस्तानी अंदाज में एक मिस्ट्रीज्म होता है। छैंया-छैंया शब्द का इस्तेमाल सूफी दर्शन में हुआ है, पर जब मैंने गानों में यूज किया तो वह एक रोमांस था।

- आपकी गानों में पेयर होता है जैसे चप्पा-चप्पा, लम्हा-लम्हा और छैंया-छैंया आदि। क्यों?

भाई पेयर के वर्ड में मजा आता है, जिसमें मैं भी थिरकने लगता हूं।

- कोई ऐसा एक्टर जिसके साथ आपको काम नहीं करने का मलाल है?

जी, अमिताब बच्चन, सिर्फ आनंद में किया, लेकिन उसमें राजेश खन्ना और वे एक साथ थे। सिर्फ उनके लिए गीत लिखने का मौका नहीं मिला। ये बस एक संयोग है.


 

जब बात कैजुअल नहीं रह जाती

गुलजार ने कहा फिल्मों में ऐसे गाने जो भले ही सामान्य लगे, लेकिन वे कैजुअली नहीं लिए जा सकते। ऐसे गानों में सोशल कांशनेस की भी बात होती है। जैसे-मेरा जूता है जापानी, सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिन्दूस्तानी।

Posted By: Inextlive