37 साल से एक ही ढर्रे पर चल रहे उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग को किया गया था भंग

विवादों की बाढ़ में दम तोड़ रही थीं भर्तियां, कानून के फंदे में फंसे थे कई अध्यक्ष, सदस्य और अफसर

vikash.gupta@inext.co.in

ALLAHABAD: उच्चतर शिक्षा सेवा (उशिसे) आयोग, उत्तर प्रदेश का भले ही योगी सरकार ने नए सिरे से गठन कर दिया हो। लेकिन नए अध्यक्ष और सदस्यों को पूर्व में मिले कड़े सबक का जरुर ख्याल रखना होगा। ऐसा होने पर ही न्यू कमीशन बेरोजगारों के जख्मों पर मरहम लगा सकेगी। बता दें कि उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष और सदस्यों (पहले बसपा फिर सपा कार्यकाल में) की करतूतों के चलते ही पिछले साल प्रदेश में नव गठित योगी आदित्यनाथ की सरकार को 37 साल पुराने आयोग के विलय का बड़ा फैसला लेना पड़ा था। मालूम हो कि उशिसे आयोग की जिम्मेदारी प्रदेश में स्थापित अशासकीय महाविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं प्रिंसिपल के चयन की है।

पहले रामवीर फिर नपे थे लाल बिहारी पांडेय

आयोग की तह में जाएं तो साफ है कि यहां रोजगार के नाम पर बेरोजगारों को छला जा रहा था। आयोग मनमाने ढंग से विज्ञापन निकालने और नियुक्तियों के लिए विख्यात हो चुका था। इसका सबसे बड़ा एग्जाम्पल इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्ती के बाद वर्ष 2015 में तत्कालीन अध्यक्ष डॉ। रामवीर सिंह यादव का कार्यवाहक के पद से हटना था। इस बीच हाईकोर्ट ने ही सदस्य के रूप में कार्यरत डॉ। रामवीर सिंह यादव, डॉ। अनिल सिंह और डॉ। रुदल यादव की नियुक्ति को अवैध करार दिया। बाद में 20 जुलाई 2015 को आयोग में कुर्सी संभालने वाले अध्यक्ष लाल बिहारी पांडेय भी अपनी अयोग्यता के चलते नप गए गये थे।

पहले दो विज्ञापन हो चुके थे रद्द

उस समय कुछ ऐसे हालात बने थे कि आयोग एक सदस्य डॉ। रामबाबू चतुर्वेदी के भरोसे रह गया था। तब बड़ा सवाल उठा था कि विज्ञापन संख्या 46 के तहत असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए विज्ञापित 1652 पदों की भर्ती कैसे पूरी होगी? इसकी लिखित परीक्षा करवायी जा चुकी थी। परिणाम घोषित नहीं हो सका था। इससे पहले आयोग विज्ञापन संख्या 44 एवं 45 की भर्ती को रद कर चुका था।

हाईकोर्ट ने खारिज की नियुक्ति

ऐसे समय जब आयोग मुश्किलों के दौर में फंसा था। तब उशिसे आयोग में वरिष्ठ आईएएस अफसर प्रभात मित्तल की इंट्री हुयी। इन्होंने अपने अल्प कार्यकाल में विज्ञापन संख्या 46 के 30 से ज्यादा विषयों का न केवल साक्षात्कार करवाया, बल्कि परीक्षा में सफल अभ्यर्थियों को कॉलेज में नियुक्ति भी उच्च शिक्षा निदेशालय से मिल गयी। हालांकि, अभी भी तकरीबन 10 विषयों का साक्षात्कार होना बाकी है। हालांकि, प्रभात मित्तल के लिए यह काम आसान नहीं रहा। क्योंकि इनके कार्यकाल में सचिव का पद संभाल रहे संजय सिंह नागा की नियुक्ति को हाईकोर्ट ने फर्जी तरीके से नौकरी हासिल करने के आरोप में निरस्त कर दिया। इसके बाद डिप्टी सीएम दिनेश शर्मा ने इनकी बर्खास्तगी का आदेश जारी किया। हालांकि, इनके कार्यकाल में विज्ञापित विज्ञापन संख्या 47 के 1150 असिस्टेंट प्रोफेसर के पद और विज्ञापन संख्या 48 के 284 प्रिंसिपल के पदों के लिए आवेदन लिया गया था। अब आने वाले कुछ दिनो में साफ हो जाएगा कि ये भर्तियां कैसे और कब तक सम्पन्न हो पायेंगी?

1980 में स्थापित हुआ था

आयोग के इतिहास में जाएं तो पता चलता है कि 01 अक्टूबर 1980 में स्थापित उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में वर्ष 1983 से 1993 के बीच प्रवक्ता पदों के दस विज्ञापन हुये। इसमें 2365 पद विज्ञापित हुये। 1052 प्रवक्ताओं का चयन हो सका। वर्ष 1994 से 2002 तक नौ विज्ञापन हुये। इसमें 4672 पद विज्ञापित हुये। 3466 प्रवक्ताओं का चयन हो सका। इसके बाद वर्ष 2003 और 2005 में आए बैकलाग के 838 और 281 प्रवक्ता पदों पर चयन का विवाद हाईकोर्ट की चौखट तक पहुंचा। विज्ञापन संख्या 41 में विज्ञापित 38 विषयों के 552 प्रवक्ता पद एवं 42 में बैकलाग के 337 पद भी विवादों से अछूते नहीं रहे। सपा के कार्यकाल से पहले बसपा शासनकाल में आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष रहे प्रो। जे। प्रसाद और उस समय सदस्य के पद पर काबिज डॉ। बीएस बौद्ध के बीच उठापटक ने भी खूब सुर्खियां बंटोरी थी।

प्रिंसिपल तक का चयन मुश्किल

बात प्राचार्यो के चयन की करें तो अब तक आयोग द्वारा प्राचार्य के 20 विज्ञापन किये गये हैं। इसमें से विज्ञापन संख्या 33, 34, 35 एवं 36 को माननीय न्यायालय ने आरक्षण को गलत ढंग से परिभाषित किए जाने के कारण निरस्त कर दिया था। विज्ञापन संख्या 43 को भी निरस्त किया जा चुका है। इसमें प्राचार्य के 32 पद शामिल थे। सपा के शासन से पहले मायावती की सरकार में आयोग के पूर्व सदस्य डॉ। सैय्यद जमाल हैदर जैदी ने तत्कालीन अध्यक्ष डॉ। जे प्रसाद द्वारा प्रशासनिक पदों पर नियंत्रण किए जाने के लिए इसे निरस्त किए जाने की संस्तुति शासन से की थी।

योग्यता हो गई दरकिनार

उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट है कि उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में शायद ही कोई ऐसी भर्ती हो जो आरोप प्रत्यारोपों से अछूती रही हो। इसके पीछे बड़ा कारण बीतते वक्त के साथ आयोग में सत्ताधारियों की दखल का बढ़ते जाना था। इसमें योग्यता को दरकिनार कर अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्तियां सत्ता की पसंद- नापसंद के आधार पर तय की गयी। हाल ये रहा कि पैसों का लेनदेन, चहेतों का चयन और नियमों की मनमानी व्याख्या आम बात होती चली गयी। कालांतर में कई सदस्य ऐसे रहे जो थे तो रीडर ग्रेड के, लेकिन भविष्य में प्रिंसिपल पद का इंटरव्यू लेने में सफल रहे।

हिस्ट्रीशीटर और सजायाफ्ता तक सदस्य

आयोग के लिए इससे भी बुरा दौर तब शुरु हुआ जब वर्ष 2004 में सदस्यों की नियुक्ति संबंधित मानकों में सातवां मानक जोड़ दिया गया कि राज्य सरकार की राय में वह व्यक्ति भी सदस्य बनाया जा सकता है, जिसका शिक्षा के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान हो। इससे हुआ यह कि हिस्ट्रीशीटर और सजायाफ्ता तक आयोग में सदस्य बना दिये गये। इसका बड़ा एग्जाम्पल इलाहाबाद हाईकोर्ट में दाखिल जनहित याचिका बनी थी। इसमें पूर्व कार्यवाहक अध्यक्ष डॉ। रामवीर सिंह यादव के बारे में कहा गया था कि वे खुद प्रिंसिपल के इंटरव्यू में चयनित नहीं हो सके थे तो उन्हें आयोग का सदस्य कैसे बना दिया गया?

इसलिए आई थी नौबत

- प्रेसिडेंट और मेम्बर्स के बीच कम्युनिकेशन गैप

- एक दूसरे के राइट्स पर अतिक्रमण की कोशिश

- ज्यादातर एप्वाइंटमेंट में धांधली के आरोप

- नियुक्तियों को कोर्ट में चुनौती और पेंडिंग केसेज का साल्व न होना

- कमीशन में राजनीतिक दखल

- इम्प्लाइज और रिसोर्सेज की भारी कमी

- कमीशन में स्पेस का भारी अभाव

- शासन और कमीशन में आपसी समन्वय का न होना आदि

Posted By: Inextlive