जासूस जिनसे सौदा मरने का होता है
हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच भी ऐसी कार्रवाइयों होती रही हैं. इसे अंजाम तक पहुँचाने के कई तरीके होते हैं.पहला तरीका होता है मानव एजेंटों का इस्तेमाल करना जिन्हें एक दूसरे के इलाकों में भेजा जाता है. उन्हें लक्ष्य दिए जाते हैं और वो इन लक्ष्यों के आधार पर अपना काम करते हैं.कोई भी एजेंसी कभी नहीं स्वीकारेगी कि वो जासूसी कार्रवाइयों में शामिल थी. ऐसे कार्यों में हमेशा खंडन सामने आते हैं. कोई मंज़ूर नहीं करता है कि किसी व्यक्ति का इस्तेमाल जासूसी के लिए किया गया.लेकिन जब कोई व्यक्ति जासूसी के लिए तैयार हो जाता है तो उसे खतरों के बारे में पता होता है, और वो खतरों के बावजूद जासूसी के लिए तैयार हो जाता है.
इन खतरों के एवज में भुगतान राशि तय की जाती है. और अगर वो किसी परेशानी में पड़ता है जिससे उसे वापस अपने मुल्क आने में परेशानी होती है तो उसके परिवार की ज़रूरतों के लिए भी बात तय हो जाती है.
लेकिन उन्हें पता होता है कि सरकारी रूप से कभी भी उनके इस्तेमाल को लेकर पुष्टि नहीं की जाएगी. सरकार की ओर से ये भी कभी नहीं माना जाएगा कि उनके परिवार को आर्थिक मदद दी जाएगी. लेकिन ये सभी समझौते गुप्त रूप से होते हैं और इसी समझौते के मुताबिक बातें आगे बढ़ती हैं.अदला-बदलीजहाँ तक मेरी जानकारी है, हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच कभी भी जासूसों की अदला-बदली नहीं हुई है लेकिन ऐसी बातें दूसरे मुल्कों में होती रही हैं.रूस और अमरीका ने कई बार अपने जासूसों की अदला-बदली की है. इसी तरह इसराइल और अरब देशों के बीच जासूसों और सैनिकों की अदला-बदली हुई है. लेकिन हिंदुस्तान और पाकिस्तान का मामला अलग है.पाकिस्तान में हिंदुस्तान के खिलाफ़ इतनी दुश्मनी की भावना है कि वहाँ कोई भी तैयार नहीं होगा कि किसी भी भारतीय कैदी के साथ नर्मी दिखाई जाए.दूसरी बात ये कि पाकिस्तान में सुरक्षा मामलों में वहाँ की फौज और एजेंसियाँ ही फ़ैसला ले सकती हैं. वहाँ की नागरिक सरकार और विदेश विभाग को ऐसे मामलों में दखलअंदाज़ी करने की रत्ती भर भी इजाज़त नहीं होती.भारत का संपर्क न तो पाकिस्तानी सेना के साथ है न ही आईएसआई के. हमारा संपर्क उनके विदेश विभाग के साथ होता है लेकिन वो ज़्यादा कुछ करने में असमर्थ होता है.(बीबीसी संवाददाता रेहान फ़ज़ल से बातचीत पर आधारित)