आज भी जब यह सवाल पूछा जाता है कि यहां पर जुर्म की सजा सबसे ज्‍यादा किसको मिलती है तो जवाब यही आता है गरीब और अल्पसंख्यकों को। लोगों का मानना है कि अमीर लोगों के मुकाबले इन लोगों को ज्यादा कड़ी सजा मिलती है। यह हम नहीं बल्‍िक आकड़ें कहते हैं। ये आंकड़े हाल ही में पिछले 15 सालों में मौत की सजा पाए लोगों पर हुए रिसर्च में सामने आए हैं। जिसमें मुख्‍य रूप से वर्ग भेदभाव कोर्ट की गतिविधियों से अंजान रहनापैसों की कमी जैसे कई कारणों का खुलासा हुआ है।


1 फीसदी अच्छे वकील ढूंढते
हाल ही में हुए इस रिसर्च में इंटरव्यू के अवलोकन पर ये आंकड़े तैयार हुए हैं। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी से एक स्टूडेंट्स की स्टडी के मुताबिक मौत की सजा पाने में 75 प्रतिशत लोग आर्थिक रूप से कमजोर लोग होते हैं। वे पैसे की कमी से अपने मामले की सही से निगरानी नहीं कर पाते हैं। उनको अपने मामले की कानूनी धाराओं और उसके बारे में कोई खास जानकारी नहीं होती है।  इसके अलावा करीब 93.5 प्रतिशत हैं धार्मिक अल्पसंख्यक और दलित वर्ग के लोग भी इसमें शामिल होते हैं। इसके पीछे मुख्य वजह वर्ग भेदभाव की होती है। अफजल गुरू जैसे लोग इस मामले में उदाहरण हैं। इस बात को खुद देश के मशहूर वकील प्रशांत भूषण ने माना है। हालांकि साथ ही साथ ही उन्होंने यह बात भी मानी है कि आज महज 1 फीसदी लोग ही अच्छे वकील ढूंढ पाते हैं। बाकी लोग तो पैसों की कमी की वजह से अच्छे वकील हायर नहीं कर पाते हैं। जिससे उन्हें बेगुनाह होते हुए भी सजा मिलती है।मानसिक रूप से परेशान होते


वहीं इस सूची में कैदियो की सख्ंया भी अधिक है जिनको कोर्ट के अंदर क्या चल रहा है। इसकी कोई जानकारी नही है। इस संबंध में ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के फाउंडर और सीनियर ऐडवोकेट कॉलिन गॉन्जाल्वेज का कहना है कि मौत की सजा पाने वाले कैदी अमूमन कोर्ट की कार्यवाही में उपस्थित नहीं होते। वे अपनी सजा को लेकर मानसिक रूप से परेशान होते हैं, क्योंकि मौत की सजा पाने वाले कैदियों को अलग बैरक में रखा जाता है। वहीं इसके अलावा ज्यादातार कैदी कोर्ट में होने के बावजूद उन्हें समझ नहीं आता कि वहां क्या चल रहा है। पिछले 15 सालों में ट्रायल कोर्ट से 1,617 लोगों को मौत की सजा मिली. जिनमें यूपी व बिहार के 42% मामले हैं। उनमें यह साफ हुआ है कि  हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट में इस तरह की सजा की दर ट्रायल कोर्ट्स के मुकाबले कम है। कन्विक्शन रेट ट्रायल कोर्ट के मुकाबले हाई कोर्ट में 17.5 फीसदी और सुप्रीम कोर्ट में 4.9 फीसदी कम है। जिसमें कई साल की फांसी की सजाओं को आजीवन कारावास या फिर बरी कर दिया जाता है। इन आकड़ों के बात लोगों का मानना है कि अब इस दिशा में काफी तेजी से परिवर्ततन किए जाने की जरूरत है।

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Posted By: Shweta Mishra