हमारी ज़िंदगी इन्हीं तीन सालों तक सिमट कर रह गई है हम इन्हीं तीन सालों में घूमते हैं। इन तीन सालों के पीछे ध्यान कभी-कभी ही जाता है। लेकिन जो उसको तकलीफ़ मिली हमारे सामने उसकी एक-एक सांस जिस तरह से ख़त्म हो गई वही चीज़ें सब दिखती हैं। वही याद आती हैं। वो तो मर गई लेकिन हम रोज़ मरते हैं रोज़ जीते हैं। एक यही मन में रहता है कि कम से कम उनको दोषियों को सज़ा मिल जाती।


चाहे कुछ भी हो, हमारे लिए तो वो आज़ाद है।  जेल से छूट गया, वो आज़ाद है। चाहे उसे एनजीओ भेजा जाए, चाहे उसे घर पर रखा जाए, ये मेरे लिए मायने नहीं रखता। मेरे लिए मायने ये रखता है कि हमारी बच्ची का एक दोषी छूट गया।  लेकिन इतना ज़रूर कहूंगी कि इतना बड़ा अपराध होने के बाद हमारी न्यायपालिका, हमारी सरकार उसे अगर छोड़ रही है तो हम उन उम्र के बच्चों को अपराध की तरफ़ इशारा कर रहे हैं कि आप कुछ भी कर सकते हो 18 साल से पहले, आपके लिए कोई सज़ा नहीं है। ये समाज के लिए ग़लत संदेश जा रहा है।  और वो छूटेगा तो वो समाज के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है।
उस वक़्त हमें ये कहकर चुप कराया गया कि दुर्भाग्यवश एक घटना हो गई तो उसके लिए क़ानून नहीं बदलेगा लेकिन मैं उन लोगों से आज ये पूछना चाहती हूं कि दुर्भाग्यवश रोज़ ये घटनाएं हो रही हैं।  अब आप क्या कर रहे हैं? अभी जो कुएं में एक लड़की को डालने की घटना हुई, उसमें दो जुवेनाइल (का नाम आया) हैं।  कुछ वक़्त पहले ढाई साल की एक बच्ची के साथ घटी घटना में दो जुवेनाइल के शामिल होने की बात सामने आई है। उन बच्चियों की तो ज़िंदगी ख़राब हो गई।  जुवनाइल ये घटनाएं करके छूट जाएंगे। अगर इस क़ानून को बदल दिया गया होता तो कम से कम इन्हें सज़ा मिलती।  फिर ये काम करते ही नहीं।  कम से कम डर तो रहता कि अगर हम ऐसा करेंगे तो हमें भी सज़ा मिलेगी।  लेकिन ऐसा है नहीं। क़ानून का कोई डर, ख़ौफ़ नहीं है।  इनका तो अधिकार है कि हम 18 साल से पहले कुछ भी कर सकते हैं। 'निर्भया' की मां आशा देवी से बातचीत की तीसरी कड़ी में पढ़ें.... 'निर्भया के भाई दीदी की याद में रोते हैं'(बीबीसी संवाददाता विनीत खरे के साथ बातचीत पर आधारित)inextlive from Spark-Bites Desk

Posted By: Shweta Mishra