राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में हार के बाद पहली बार जनता से मिलने के क्रम में बदायूं गए जहाँ अति पिछड़ी जाति की दो किशोरियों के साथ वहाँ के अधिपत्यशालियों ने नृशंस बलात्कार किया और फिर हत्या कर दी.


पराजय की राजनीतिक संस्कृति में डूबती-उतराती कांग्रेस में अपने लोगों की भर्त्सनाओं से जूझते वे संगठन को धार देना चाहते हैं. पराजय के कारणों की तलाश और कांग्रेस को कैसे उबारा जाए, जैसे विषयों पर कांग्रेस नेताओं से इन दिनों वे लगातार बातें कर रहे हैं.यूँ तो हम विजयी के सामने नतमस्तक होते हैं और उसका गुण गाते हैं, किन्तु एक अरबी लोककथा में नीति उपदेश है कि पराजित नायक को कभी उपेक्षित नहीं समझना चाहिए, बल्कि उसे सलाम करना चाहिए, क्योंकि भविष्य विजित का नहीं होता वरन् पराजित का होता है.हारे होने के बावजूद उसके मस्तक पर एक अदृश्य ताज सज रहा होता है, सिर्फ़ हमारे पास उसे देखने के लिए आंखें होनी चाहिए. देखना यह है कि राहुल गांधी इस नीति कथा को कितना चरितार्थ कर पाते हैं?


भारतीय राजनीति में पराजय ‘नायक’ से उसका ‘नायकत्व’ छीन लेती है और उसे आलोचना, उपेक्षा एवं उपहास का पात्र बना देती है.इसका मूल कारण है कि भारत में राजनीति सत्ता सुख से गहरे जुड़ी है, जैसे ही सत्ता जाती है, सत्ता खोने के ग़म में लोग अपने ही नायक को उपेक्षा से देखने लगते हैं.सत्ता और राजनीति का अंतरसंबंध

कांग्रेस में एचटी मुस्तफ़ा, राजीव साटव, मिलिंद देवड़ा अपनी आत्मालोचना करते हुए राहुल गांधी की आलोचना करते तो शायद अच्छा होता.किंतु राहुल गांधी जो दूसरे के भ्रष्टाचार, दूसरों द्वारा भोगी गई सत्ता के विरुद्ध जनभावना का अकेले सामना कर रहे थे, के प्रति विवेकपूर्ण आलोचनात्मक अभिव्यक्ति आज कांग्रेस में नहीं दिखाई पड़ रही है.ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस मध्य प्रदेश विधान सभा का चुनाव हार चुकी थी, उन्हें तो राहुल गांधी के नेतृत्व का मूल्याकंन करते वक्त अपनी असफलताओं का भी स्मरण करना चाहिए ही था.पराजय की राजनीतिक भाषा एक तरफ आत्मभर्त्सना को जन्म देती है, दूसरी तरफ़ अपने को अच्छा और दूसरा चाहे अपना हो या दूसरे दल का उसे ही पराजय का कारण ठहराने के तर्क से भरी होती है.इसे ही शायद लोक मुहावरे में ‘हारे को हरिनाम’ कहते हैं. कांग्रेस के ज़्यादातर नेता लोकसभा के चुनाव के बाद व्यक्तिगत चर्चाओं में या वक्तव्यों में ऐसी ही भाषा बोलते हुए सुनाई पड़ते हैं.पराजय के समय ऐसी भाषा को काउंटर करने वाली भाषा जो पराजित दल के भीतर जी रही होती है, पर वह काफ़ी कमज़ोर हो जाती है, न उसे कोई सुनना चाहता, न कोई समझना चाहता.नकारात्मकता की अन्तःध्वनि

कांग्रेसी चूंकि सदा सत्ताभोगी रहे हैं, अतः वे यह भी भूल गए हैं कि राजनीति मर के जीने का नाम है. ग्रीक लोककथा के सोने के पंखों वाली फ़ीनिक्स पक्षी की तरह ,जो अपनी ही राख से फिर जी उठता है.उन्हें समझना चाहिए कि पराजय का मनोविज्ञान पराजय के भाव को दीर्घजीवी बनाता है. किन्तु संघर्ष की चाह उस पराजय भाव को काटती है, दुखद यह है कि कांग्रेस उस ‘संघर्षभाव’ से आज कट गई है. आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व में जिस कांग्रेस ने सड़कों पर संघर्ष किया था, देखना है कि वह कांग्रेस फिर से उभर पाती है या नहीं.यह भारतीय राजनीति के लिए ‘लाख प्रश्नों में एक प्रश्न’ है. इसका उत्तर कांग्रेस को देना है और अगर कोई न भी पूछे तो स्वयं राहुल गांधी को ही देना है और पार्टी को पराजय के मनोविज्ञान से निकालना है ताकि लोग इस हारे हुए नायक के माथे के अदृश्य ताज को देख पाएँ.एक नई कांग्रेस जिसे वे बनाना चाहते हैं, उसके लिए एक स्वर्णिम अवसर इस पराजय ने उन्हें दिया है, सत्तालोलुप राजनीतिक वर्ग से इतर संघर्षशील राजनीतिक वर्ग रचने का कार्य उन्हें करना है, देखना है वे इसे कैसे संभव कर पाते हैं.
गंभीर एवं जनता की नब्ज को समझने वाले निंदकों को अपने पास रख, वे कितना उनसे संवाद कर जनतंत्र की लड़ाई को गति दे पाते हैं और कांग्रेस की चमचा संस्कृति को बदल पाते हैं जो सत्ता में रहने पर चमचे बने रहते हैं और सत्ता जाने पर भद्दे आलोचक में तब्दील हो जाते हैं.

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari